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आस्रव अधिकार
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अतः हमें कभी भी मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसलिए करे कोई और भरे कोई' - यह कर्मफल का सिद्धान्त अज्ञान-मूलक और वस्तु-तत्त्व के विरुद्ध है। आचार्य अमितगति ने ही भावना बत्तीसी में इसी भाव को निम्न श्लोक में बताया है -
स्वयंकृतं कर्म यदात्मनापुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् ।
परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयंकृतं कर्म निरर्थकं तदा।। श्लोकार्थ :- पहले स्वयं किये हुए शुभाशुभ कर्म के फल को जीव स्वयं भोगता है। यदि एकजीव को दूसरे जीव के दिये हुए शुभाशुभ कर्म का फल भोगना पड़े तो स्वयं किये हुए कर्म निरर्थक हो जायेंगे।
इसी विषय के विशद ज्ञान हेत जिज्ञास समयसार गाथा २५३ से २५६ तथा इन गाथाओं की टीका एवं समयसार कलश १६८,१६९ जरूर देखें। कर्म में जीव के स्वभाव का आच्छादन करने का उदाहरण -
जीवस्याच्छादकं कर्म निर्मलस्य मलीमसम् ।
जायते भास्करस्येव शुद्धस्य घन-मण्डलम् ।।१२२।। अन्वय :- शुद्धस्य भास्करस्य घन-मण्डलं इव मलीमसंकर्म निर्मलस्य जीवस्य आच्छादकं जायते।
सरलार्थ :- जिसप्रकार घनमण्डल अर्थात् बादलों का समूह निर्मल सूर्य का आच्छादक हो जाता है, उसीप्रकार से निर्मल जीव के स्वभाव का, स्वभाव से मलीन कर्म आच्छादक होता है।
भावार्थ :- जीव स्वभाव से निर्मल है, सब प्रकार के मल से रहित शुद्ध है। उसको मलिन करनेवाला एक मात्र कर्ममल है और वह द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म (शरीरादि) के भेद से तीन प्रकार का है, जो उसे सब ओर से उसीप्रकार आच्छादित किये हुए है, जिसप्रकार कि घनघोर-घटा निर्मल सूर्य को आच्छादित करती है। ___ अनादिकाल से प्रत्येक जीव अपनी गलती/पुरूषार्थ-हीनता से एवं पर्यायगत पात्रता के अनुसार पूर्ण विकास अथवा अत्यधिक विकास अथवा धर्म का प्रारम्भ नहीं कर पाता, उस समय अलगअलग कर्म जीव के साथ निमित्तरूप से नियम से उदयरूप रहते हैं, उनका यहाँ ज्ञान कराया है। इस कथन से कर्म बलवान है, कर्म, जीव के विकास को रोक देता है अथवा विकास करने में बाधक हो जाता है; ऐसा नहीं समझना चाहिए। मिथ्यात्वादि कषाय ही आस्रव-बन्ध का कारण -
कषायस्रोतसागत्य जीवे कर्मावतिष्ठते।
आगमेनेव पानीयं जाड्य-कारं सरोवरे ।।१२३।। अन्वय:-सरोवरे (स्रोतसा) जाड्यकारं पानीयं आगमेन इव कषाय-स्रोतसा (जाड्यकारं) कर्म आगत्य जीवे अवतिष्ठते।
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