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श्रीमद्-अमितगति-आचार्य-विरचित योगसार-प्राभूत
जीव-अधिकार
ग्रंथकार का मंगलाचरण एवं उद्देश्य -
विविक्तमव्ययं सिद्धं स्व-स्वभावोपलब्धये।
स्व-स्वभावमयं बुद्धं ध्रुवं स्तौमि विकल्मषम्।।१।। अन्वय :- (अहं) स्व-स्वभावोपलब्धये विकल्मषं विविक्तं अव्ययं ध्रुवं बुद्धं स्व-स्वभावमयं सिद्धं स्तौमि।
सरलार्थ :- मैं अमितगति आचार्य अपने स्वभाव की प्राप्ति के लिये उन सिद्धों की स्तुति करता हूँ; जो शुद्ध, वीतराग, ज्ञानमय, अविनाशी, अच्युत, नित्य एवं अपने स्वरूप में स्थित हैं।
भावार्थ :- अध्यात्म-ग्रन्थों के मंगलाचरण में मुख्यरूप से सिद्धों को ही नमस्कार करने की परम्परा दिखाई देती है। जैसे - समयसार, समाधिशतक, परमात्मप्रकाश आदि आध्यात्मिक ग्रन्थों के मंगलाचरणों में सिद्धों को ही नमस्कार किया गया है। तदनुसार आचार्य अमितगति ने भी यहाँ इस अध्यात्मग्रंथ के मंगलाचरण में सिद्धपरमेष्ठी को ही नमस्कार किया है।
सिद्धों का स्मरण करने से तो पुण्यबन्ध ही होता है, तथापि ज्ञानियों को भी साधक-अवस्था में ऐसा भाव आये बिना रहता नहीं है।
ग्रन्थाधिराज समयसार की मंगलाचरण स्वरूप प्रथम गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इस सन्दर्भ में लिखते हैं कि “वे सिद्ध भगवान, सिद्धत्व के कारण साध्य जो आत्मा, उसके प्रतिच्छन्द