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योगसार-प्राभृत
कर्म के आस्रव एवं बन्ध में निमित्त का निर्देश -
योगेन ये समायान्ति शस्ताशस्तेन पुद्गलाः।
तेऽष्टकर्मत्वमिच्छन्ति कषाय-परिणामतः ।।८२।। अन्वय :- शस्त-अशस्तेन योगेन ये पुद्गलाः (आत्म-प्रदेशेषु) समायान्ति, ते (पुद्गलाः) कषाय-परिणामतः अष्ट-कर्मत्वं इच्छन्ति।
सरलार्थ :- मन-वचन-काय के शुभ अथवा अशुभ योग के निमित्त से जो पुद्गल आत्मप्रदेशों में प्रवेश करते हैं, वे ही पुद्गल अर्थात् कार्माणवर्गणाएँ मोह-राग-द्वेषादि कषाय परिणामों के निमित्त से ज्ञानावरणादि अष्टकर्मरूप परिणमती हैं।
भावार्थ :- अनन्त सर्वज्ञ भगवन्तों ने कर्मबन्ध के प्रकृति, प्रदेश, स्थिति एवं अनुभाग - ये चार भेद कहे हैं । इन चारों बन्ध के लिये भिन्न-भिन्न कारणों का उल्लेख किया है। योग से प्रकृति एवं प्रदेशबन्ध और मिथ्यात्व या कषाय से स्थिति एवं अनुभागबन्ध होते हैं। द्रव्यसंग्रह की यह गाथा तो जैन जगत में प्रसिद्ध है कि - जोगा पयडि-पदेसा ठिदि अनुभागा कसायदो होति।
प्रत्येक कार्य में जो निमित्त हैं, उनका भी यथार्थ ज्ञान करना आवश्यक है। प्रकृतिबन्ध के भेद -
ज्ञानदृष्ट्यावृती वेद्यं मोहनीयायुषी विदुः ।
नाम गोत्रान्तरायौ च कर्माण्यष्टेति सूरयः ।।८३।। अन्वय :- ज्ञान-दृष्ट्यावृती वेद्यं मोहनीय-आयुषी नाम च गोत्र-अन्तरायौ इति अष्टकर्माणि सूरयः विदुः।
सरलार्थ :- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय इसप्रकार आचार्यों ने प्रकृतिबंध के आठ भेद बताये हैं।
भावार्थ :- पूर्व श्लोक में आत्म-क्षेत्र में प्रविष्ट हुए पुद्गलों के जिन आठ कर्मरूप परिणत होने की बात कही गयी है, उनके नाम इस श्लोक में बताये हैं। पुद्गलात्मक होने से ये आठों द्रव्यकर्म हैं। इन कर्मों में अपने-अपने नामानुकूल कार्य करने का निमित्तपना होता है, जिसे 'प्रकृतिबन्ध' कहते हैं। इसलिए ये आठ मूलकर्म प्रकृतियाँ कहलाती हैं, जिनके उत्तर भेद १४८ हैं। इन कर्म-प्रकृतियों का विशेष वर्णन षट्खण्डागम, गोम्मटसार, कम्मपयडि, पंचसंग्रह आदि कर्मसाहित्य विषयक करणानुयोग के ग्रन्थों से जानना चाहिए । तत्त्वार्थसूत्र के अध्याय ७ और सूत्र ४ में इन कर्मों का नामोल्लेख किया है। जीव अपने विकारी भावों का कर्ता और पुद्गल कर्म का अकर्ता -
कल्मषोदयत: भावो यो जीवस्य प्रजायते । स कर्ता तस्य भावस्य कर्मणो न कदाचन ।।८४।।
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