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योगसार-प्राभृत
उपकारसंबंधी विषय तत्त्वार्थसूत्र के अध्याय ५ के सूत्र २१ में आया है। पुद्गल का उपकार -
जीवितं मरणं सौख्यं दुःखं कुर्वन्ति पुद्गलाः।
उपकारेण जीवानां भ्रमतां भवकानने ।।७६॥ अन्वय :- पुद्गलाः भवकानने भ्रमतां जीवानाम् उपकारेण जीवितं, मरणं, सौख्यं, दुःखं कुर्वन्ति।
सरलार्थ – संसाररूपी वन में भ्रमण करनेवाले जीवों पर पुद्गल अपने निमित्त से जीवन, मरण, सुख तथा दुःखरूप उपकार करते हैं अर्थात् जीवों के इन कार्यरूप परिणमन में पुद्गल निमित्त होते हैं।
भावार्थ - जब जीव द्रव्य अपनी योग्यता से/उपादान से अर्थात् अपने ही कारण जीवन, मरण, सुख, दुखरूप परिणत होता है, उस समय जिस पुद्गल पर अनुकूलता का आरोप आता है, उस पुद्गल का जीव पर उपकार हुआ, ऐसा व्यवहार चलता है, उसे ही पुद्गल ने जीव पर उपकार किया; ऐसा कथन जिनवाणी में आता है।
उपकार शब्द से मात्र अनुकूल अथवा अच्छे कार्य में सहयोगी होना, इतना ही अर्थ नहीं करना; क्योंकि इसी श्लोक में सुख में और दुख में तथा जीवन में और मरण में पुद्गल का उपकार होता है - ऐसा कहा है; इससे ही सब विषय स्पष्ट हो जाता है । यह विषय तत्त्वार्थसूत्र के अध्याय ५ के सूत्र १९ एवं तत्त्वार्थसार अध्याय ३, श्लोक ३१ में भी आया है। कोई किसी का कभी कोई कार्य करता ही नहीं -
पदार्थानां निमग्नानां स्वरूपं परमार्थतः ।
करोति कोऽपि कस्यापि न किंचन कदाचन ।।७७।। अन्वय :- परमार्थतः स्वरूपं निमग्नानां पदार्थानां कः अपि कस्य अपि कदाचन किंचन (अपि) न करोति।
सरलार्थ :- सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में मग्न/लीन हैं; इसकारण निश्चयनय से कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ का कुछ भी कार्य कभी भी नहीं कर सकता। ___भावार्थ :- छहों द्रव्यों के उपकार के प्रकरण के बाद इस श्लोक द्वारा आचार्य ने यह स्पष्ट किया है कि अभी हमने जो उपकार का कथन किया, वह सब निमित्त की मुख्यता से किया गया व्यवहार का कथन है। निश्चयनय से कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ का कछ भी कार्य नहीं कर सकता। तथापि जिन्हें यह सत्य कथन मान्य नहीं करना है, वे अनेक प्रकार की शंकाएँ उपस्थित करते हैं; जो अनुचित है।
प्रश्न - निश्चयनय से कोई किसी का कुछ नहीं कर सकता; लेकिन व्यवहार से तो कर सकता
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