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अजीव अधिकार
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ही बुद्धिगम्य दृष्टान्त से संक्षेप में ही कथन किया है। द्रव्यसंग्रह गाथा २२ में एवं गोम्मटसार गाथा ५८८ में यही भाव स्पष्टरूप से दिया है। धर्म, अधर्म और पुद्गलद्रव्य की व्यापकता -
धर्माधर्मों स्थितौ व्याप्य लोकाकाशमशेषकम् ।
व्योमैकांशादिषु ज्ञेया पुद्गलानामवस्थितिः ।।७२।। अन्वय :- धर्माधर्मों अशेषकं लोकाकाशं व्याप्य स्थितौ (स्त:)। पुद्गलानां अवस्थिति: व्योम-एक-अंशादिषु ज्ञेया।
सरलार्थ :- धर्म, अधर्म-दोनों द्रव्य संपूर्ण लोकाकाश में व्यापकर तिष्ठते हैं। पुद्गलों का अवस्थान/व्यापकता आकाश द्रव्य के एक आदि अंश अर्थात् एक प्रदेश से लेकर दो, तीन, चार आदि प्रदेश बढ़ाते हुए संपूर्ण लोकाकाश में जानना चाहिए।
भावार्थ :- धर्म और अधर्म ये दो द्रव्य तो सारे लोकाकाश में व्याप्त होकर स्थित हैं। लोकाकाश का कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं, जो इनसे व्याप्त न हो। इनमें से प्रत्येक की प्रदेशसंख्या असंख्यात होने से लोकाकाश भी असंख्यातप्रदेशी है; यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है। पुद्गलों की अवस्थिति लोक के एक प्रदेश से लेकर संख्यात असंख्यात प्रदेशों पर्यंत है । तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५, सूत्र १२, १३, १४ में यही भाव आया है। संसारी जीवों की लोकाकाश में व्यापकता -
लोकासंख्येयभागादाववस्थानं शरीरिणाम् ।
अंशा विसर्प-संहारौ दीपानामिव कुर्वते ।।७३।। अन्वय :- शरीरिणां अवस्थानं लोक-असंख्येयभागादौ (भवति)। (संसारी जीवानां) अंशाः दीपानां इव विसर्प-संहारौ कुर्वते।।
सरलार्थ :- शरीरधारी संसारीजीव की व्यापकता लोकाकाश के असंख्येय भागादिकों में अर्थात् लोकाकाश के असंख्यातवें भाग में होती है । संसारी जीवों के प्रदेश शरीर के आकारानुसार दीपकों के प्रकाश के समान संकोच-विस्तार करते रहते हैं।
भावार्थ :- लोकाकाश का असंख्यातवाँ भाग असंख्यात प्रदेशी है और पूर्ण लोकाकाश के प्रदेश भी असंख्यात हैं; यह विषय समझना यहाँ महत्त्वपूर्ण है।
पहले संख्यात और असंख्यात की परिभाषा जानना आवश्यक है। जो संख्या पाँचों इन्द्रियों का अर्थात् मति-श्रुतज्ञान का विषय हो, उसे संख्यात कहते हैं। उसके अनेक अर्थात् संख्यात भेद हैं। जैसे-२ यह जघन्य संख्या है। १००, २००, १०००, ५०००, ५ लाख, ५ करोड, अरब, खरब, नील, महानील आदि संख्या के संख्यात भेद हैं।
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