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चूलिका अधिकार
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अन्वय : - पुंसः वैषयिकं ज्ञानं सर्वं पौद्गलिकं मतम् । पुनः विषयेभ्यः परावृत्तं अपरं (सर्वं ज्ञानं) आत्मीयं मतम् ।
सरलार्थ :- स्पर्शनेंद्रियादि पाँचों इंद्रियों के निमित्त से उत्पन्न होनेवाला स्पर्शादि विषयों का जितना भी जो ज्ञान है, उसे पौद्गलिक कहते हैं और स्पर्शादि विषयों से परावृत्त अर्थात् इंद्रियों के निमित्तों के बिना होनेवाले दूसरे ज्ञान को आत्मीय ज्ञान कहते हैं।
भावार्थ :- आगम में ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष, मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान, इंद्रियज्ञान और अतीन्द्रियज्ञान ऐसे विभन्न अपेक्षाओं से विभिन्न दो-दो भेद देखने को मिलते हैं। यहाँ अध्यात्म की मुख्यता करके इंद्रिय-निमित्त ज्ञान को पौद्गलिक और इंद्रिय-निमित्तों से निरपेक्ष ज्ञान को आत्मीय ज्ञान कहा है।
प्रश्न :- इंद्रियजन्य अर्थात् क्षायोपशमिक ज्ञान को यहाँ पौद्गलिक क्यों कहा?
उत्तर :- वस्तुस्वरूप की अपेक्षा से विचार किया जाय तो ज्ञान तो ज्ञान होता है । वह पौद्गलिक हो ही नहीं सकता । पुद्गल तो जड़ है, जड़ से अथवा जड़ में ज्ञान होता ही नहीं । इंद्रियाँ जड़ हैं और उन जड़ इंद्रियों के निमित्त से स्थूल-जड़ पुद्गलों का ही ज्ञान होता है, अत: इन्द्रियों के निमित्त से होनेवाले ज्ञान को निमित्त की मुख्यता करके जड़/पौद्गलिक कहा है।
इसमें मूल प्रयोजन यह है कि अज्ञानी जीव की पर्याय में पर में एकत्व-ममत्व करने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति से मिथ्यात्व पुष्ट होता है। मिथ्यात्व के नाश करने के प्रयोजन से यहाँ इंद्रियनिमित्तिक ज्ञान को पौद्गलिक कहा है। पर्याय-मूढ़ को सम्यग्दृष्टि बनाना ही अध्यात्म शास्त्र का मूल उद्देश्य रहता है । इसकारण इस श्लोक में इंद्रियजन्य ज्ञान को पौद्गलिक कहा है। वस्तुत: ज्ञान के भेद नहीं -
गवां यथा विभेदेऽपि क्षीरभेदो न विद्यते।
पुंसां तथा विभेदेऽपि ज्ञानभेदो न विद्यते ।।५३३॥ अन्वय : - यथा गवां विभेदे अपि क्षीरभेदः न विद्यते, तथा पुंसां विभेदे अपि ज्ञानभेदः न विद्यते।
सरलार्थ :- जिसप्रकार विभिन्न गायों में काली, पीली, धौली, चितकबरी रूप भेद होने पर भी उनके दूध में अर्थात् दूध के सामान्य श्वेत वर्णादि में कोई भेद नहीं होता; उसीप्रकार आत्मा के एकेंद्रियादिक-तिर्यंचादिक भेद होनेपर भी उनके ज्ञान के जाननरूप स्वभाव में भेद नहीं होता।
भावार्थ :- जिनधर्म में विभिन्न प्रकार की अपेक्षाएँ आपको देखने को मिलेगी। जिनधर्म को हम अपेक्षाओं का भंडार भी कह सकते हैं। मतिज्ञानादिक ज्ञान के ५ भेद तो हैं ही। मात्र मतिज्ञान के ही अवग्रहादि की अपेक्षा भेद करेंगे तो तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं। इसीतरह श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान के भी अनेक भेद ग्रंथों में प्रतिपादित हैं, जो अभ्यासी लोगों को ज्ञात ही है।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/317]