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योगसार प्राभृत
भावार्थ :- कर्मबंध का उपादान कारण कलुषता बताया गया है तथा यह भी स्पष्ट किया है कि मन-वचन-काय की क्रियारूप निमित्तस्वरूप सामग्री होने पर भी कलुषता के अभाव में कर्मबंधरूप कार्य नहीं होता ।
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समयसार शास्त्र के बंधाधिकार में २३७ से २४६ तक इन दस गाथाओं में, इनकी टीका में और १६४ आदि अनेक कलशरूप काव्यों में कर्मबंध का मूल रागपरिणाम को ही बताया है । इन सबका अतिशय संक्षेप में यहाँ ग्रंथकार ने कथन किया है। समयसार में जिसे णेहभाव तथा रागादि भाव कहा है, उसे इस श्लोक में कालुष्य शब्द से अभिहित किया है । समयसार नाटक के बंधाधिकार में भी यह सब कथन आया है। इन सबको देखना पाठकों के लिये उपयोगी होगा ।
यहाँ हम समयसार के कलश १६४ का अनुवाद दे रहे हैं - "कर्मबंध को करनेवाला कारण न तो बहु कर्मयोग्य पुद्गलों से भरा हुआ लोक है, न चलनस्वरूप कर्म (अर्थात् मन-वचन-काय की क्रियारूप योग) है, न अनेक प्रकार के करण (इन्द्रियाँ) हैं और न चेतन-अचेतन का घ है; किन्तु उपयोगभू अर्थात् आत्मा रागादि के साथ जो ऐक्य को प्राप्त होता है वही एकमात्र (मात्र रागादि के साथ एकत्व प्राप्त करना वही) वास्तव में पुरुषों के बंधकारण है ।' जीव कषायादिरूप नहीं होता
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यथा कुम्भमयो जातु कुम्भकारो न जायते । सहकारितया कुम्भं कुर्वाणोऽपि कथंचन । । ५१३ ।। कषायादिमयो जीवो जायते न कदाचन ।
कुर्वाणोऽपि कषायादीन् सहकारितया तथा । । ५१४।।
अन्वय : - यथा सहकारितया कुम्भं कुर्वाणः अपि कुम्भकारः कथंचन कुम्भमय: जातु न
जायते;
तथा सहकारितया कषायादीन् कुर्वाणः अपि जीव: कदाचन कषायादिमय: न जायते । सरलार्थ :- जिसप्रकार सहकारिता के रूप में अर्थात् निमित्त की अपेक्षा से कुंभ को करता हुआ कुंभकार कभी कुंभरूप नहीं होता, कुंभकार ही रहता है।
उसीप्रकार सहकारिता के रूप में अर्थात् निमित्त की अपेक्षा से क्रोधादि कषायें करता हुआ भी यह जीव कभी क्रोधादि कषायरूप नहीं होता, जीव ही रहता है।
भावार्थ :- कोई यह शंका करे कि क्रोधादि कषायों को करता हुआ जीव कषायादिमय हो जाता है । कषाय ही जीव का स्वभाव बन जाता है, तो फिर जीव कषाय से रहित कैसे हो पायेगा ? इस शंका का समाधान ही इन दो श्लोकों में ग्रंथकार ने किया है।
जिसतरह कुंभकार जीवन में कितने भी कुंभों को करे तो भी वह कुंभकार अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखता हुआ इस दुनियाँ में प्रत्यक्ष देखा जाता है । उसीतरह जीव क्रोधादि कषाय करता है ऐसा व्यवहारनय से अथवा अशुद्ध निश्चयनय से जिनवाणी में कितना भी कथन आवे तो भी जीव
[C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/306]