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योगसार प्राभृत
प्रश्न :
- कषायों के अभाव से जीव क्षीणमोही हो जाता है, आप सिद्ध परमात्मा हो जाता है - ऐसा क्यों कहते हो ?
उत्तर :- निर्विकार शब्द से जीव पूर्ण वीतरागी हो जाता है, ऐसा अर्थ समझना चाहिए और श्लोक में विनिश्चल शब्द भी ग्रंथकार ने दिया है, जिसका अर्थ स्थिर होता है, इससे योग का अभाव बताया गया है । इस कारण हमने सिद्ध परमात्मा ऐसा अर्थ करना योग्य समझा है। आत्मा का यथार्थ स्वरूप -
अक्ष-ज्ञानार्थतो भिन्नं यदन्तरवभासते ।
तद्रूपमात्मनो ज्ञातृज्ञातव्यमविपर्ययम् ।।५००।।
अन्वय : - अक्ष-ज्ञानार्थतः भिन्नं यत् अन्तः अवभासते, तत् ज्ञातृज्ञातव्यं आत्मनः अविपर्ययं रूपं (अस्ति) ।
सरलार्थ :- (स्पर्शेनेन्द्रिय आदि पाँच इंद्रियों से स्पर्श, रस, गंध, वर्ण एवं शब्दरूप पुद्गलमय / जड़ ज्ञेय पदार्थों का ज्ञान होता है। इन स्पर्श-रस आदि) इंद्रियज्ञान के विषयों से भिन्न अंतरंग में ज्ञाता के द्वारा ज्ञातव्य अर्थात् अनुभव में आनेवाला जो पदार्थ है, वही आत्मा का विपरीतता से रहित यथार्थ स्वरूप है ।
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भावार्थ : - इस श्लोक में आत्मा के स्वरूप अनुभव की मुख्यता से बात बताई गई है। स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द ये पाँचों इंद्रियों के विषय हैं। स्पर्शादि गुण-पर्यायों में से एक भी आत्मा में नहीं है । इससे यह स्पष्ट होता है कि इंद्रियों से आत्मा जानने / अनुभव में नहीं आता, वह आत्मा मात्र स्वानुभवगम्य है ।
श्लोक में जो ज्ञाता शब्द आया है वह मोक्षमार्गस्थ साधक जीव के लिये आया है। साधक के अनुभव में आत्मा जैसा आता है, वैसा ही आत्मा का यथार्थ स्वरूप है।
समयसार कलश ३५, ३६ में आत्मा को मात्र चैतन्य - शक्तिमय कहकर उसका अनुभव करने की प्रेरणा दी है। आगे ५० से ५५ पर्यंत की गाथाओं में आत्मा को वर्णादि से लेकर रागादि पर्यंत २९ भावों से भिन्न कहा है । इन गाथाओं की टीका में अमृतचंद्र आचार्य ने प्रत्येक भाव आत्मा नहीं है यह बताते समय अपनी अनुभूति से भिन्न होना, यही एक ही हेतु सामने रखा है ।
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यहाँ ग्रंथकार ने समयसार के इस मर्म को ज्ञातृज्ञातव्यं शब्द से कहने का प्रयास किया है। व्यक्तरूप परमज्योति का स्वरूप -
यत्रासत्यखिलं ध्वान्तमुद्द्योतः सति चाखिलः ।
अस्त्यपि ध्वान्तमुद्द्योतस्तज्ज्योतिः परमात्मनः । । ५०१ ।।
अन्वय : - यत्र (यस्य) असति अखिलं ध्वान्तं (भवति) च (यस्य) सति अखिल : उद्योतः (भवति)। ध्वान्तं अपि उद्योतः अस्ति, तत् आत्मन: परं ज्योति: (अस्ति) ।
[C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/298 ]