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चूलिका अधिकार
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ज्ञानी पापों से निर्लिप्त -
न ज्ञानी लिप्यते पापै नुमानिव तामसैः।
विषयैर्विध्यते ज्ञानी न संनद्धः शरैरिव ।।४८६।। अन्वय :- तामसै: भानुमान् इव ज्ञानी पापैः न लिप्यते । संनद्धः शरैः इव ज्ञानी विषयैः न विध्यते।
सरलार्थ :- जिसप्रकार सूर्य अंधकारों से व्याप्त अर्थात् आच्छादित नहीं होता अर्थात् अंधकार सूर्य के प्रकाश को ढक नहीं सकता - प्रकाश को नष्ट नहीं कर सकता, उसीप्रकार ज्ञानी की भूमिका में होनेवाले योग्य/न्याय्य पापों से उसका व्यक्त धर्म व्याप्त/आच्छादित नहीं होता अर्थात् ज्ञानी के न्याय्य पाप उसके व्यक्त धर्म को ढक नहीं सकते - धर्म को नष्ट नहीं कर सकते। जिसप्रकार युद्ध में कवच (बख्तर) पहना हुआ योद्धा बाणों से नहीं बिंधता, उसीप्रकार ज्ञानी पंचेंद्रिय के विषयों को भोगने के कारण कर्मों से नहीं बंधता।
भावार्थ :- सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान की महिमा इस श्लोक में स्पष्ट की है। इस श्लोक का भावार्थ समझने के लिये समयसार कलश १३४ अत्यन्त उपयोगी है, अतः यहाँ उद्धृत कर रहे हैं -
तज्ज्ञानस्यैव सामर्थ्य विरागस्यैव वा किल ।
यत्कोऽपि कर्मभिः कर्म भुंजानोऽपि न बध्यते।। कलशार्थ:- वास्तव में वह (आश्चर्यकारक) सामर्थ्य ज्ञान की ही है अथवा विराग की ही है कि कोई (सम्यग्दृष्टि जीव) कर्मों को भोगता हुआ भी कर्मों से नहीं बँधता! (वह अज्ञानी को आश्चर्य उत्पन्न करती है और ज्ञानी उसे यथार्थ जानता है।)
श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र गुण का कार्य/परिणमन एक-दूसरे से संज्ञा-संख्या-लक्षण एवं प्रयोजन की अपेक्षा से कथंचित् भिन्न-भिन्न है, यह विषय जानना अति आवश्यक है। ज्ञान की महिमा -
___ अनुष्ठानास्पदं ज्ञानं ज्ञानं मोहतमोऽपहम् ।
पुरुषार्थकरं ज्ञानं ज्ञानं निर्वृति-साधनम् ।।४८७।। अन्वय :- ज्ञानं अनुष्ठानास्पदं, ज्ञानं मोहतमोऽपह, ज्ञानं पुरुषार्थकरं, (च) ज्ञानं निर्वृतिसाधनम् (अस्ति)।
सरलार्थ :- सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र का आधार है, मोहरूपी महा अंधकार को नाश करनेवाला एक मात्र सम्यग्ज्ञान है, पुरुष अर्थात् आत्मा के प्रयोजन को पूरा करनेवाला मोक्ष का साक्षात् साधन सम्यग्ज्ञान है।
भावार्थ :- अध्यात्म शास्त्र में ज्ञान को प्रमुख स्थान दिया जाता है। इसलिए ही अध्यात्म का शिरमौर ग्रंथ समयसार के प्रौढ़ टीकाकार आचार्य अमृतचंद्र ने प्रत्येक अधिकार के प्रारंभ में प्रथम
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