________________
चूलिका अधिकार
२८३
जरूर पढ़ें । वहीं आगे गाथा ७६ में अत्यंत विशदरूप से कहा है - इन्द्रियों से भोगा जानेवाला सुख पराधीन, बाधासहित, विच्छिन्न, बंध का कारण और विषम है; अतः उसे दुःख ही जानो। भोग एवं आत्मज्ञान का स्वरूप -
ततः पुण्यभवा भोगा दुःखं परवशत्वतः।
सखं योगभवं ज्ञानं स्वरूपं स्ववशत्वतः ।।४६९।। अन्वय :- ततः पुण्यभवा: भोगा: परवशत्वत: दुःखं (भवति)। योगभवं ज्ञानं स्ववशत्वतः सुखं स्वरूपं (भवति)।
सरलार्थ :- जो जो पराधीन है वह सब दुःख है। इसलिए पुण्य से उत्पन्न हुए जो जो भोग हैं, वे सब परवश/पराधीन होने से दुःखरूप हैं । योग अर्थात् ध्यान से उत्पन्न हुआ जो निज शुद्ध आत्मा का ज्ञान है, वह स्वाधीन होने से सुखरूप एवं अपने आत्मा का स्वरूप है। ___भावार्थ :- इस श्लोक में प्रथम तो पुण्य से उत्पन्न पराधीन सुख को दुःख ही बता दिया है, जैसे कि प्रवचनसार में गाथा ७५ तथा उसकी टीका में समझाया है - 'जिनकी विषयतृष्णा उदित है, ऐसे जीव तृष्णाओं के द्वारा दुःखी होते हुए मरणपर्यंत विषय सुखों को चाहते हैं और दुःखों से संतप्त होते हए/द:खदाह को सहन न करते हए उन्हें भोगते हैं।'
प्रवचनसार की छठवीं गाथा की टीका में देवेंद्रादि के वैभव को क्लेश बताया है। गाथा ६४ एवं उसकी टीका में भी उदाहरणों सहित इंद्रियधारी को दुःखी सिद्ध किया है।
श्लोक के उत्तरार्द्ध में ध्यान से उत्पन्न शुद्धात्मा के ज्ञान को सुखरूप बतलाया है। इसी विषय का खुलासा प्रवचनसार की ५९, ६०, ६१, ६२ इन चार गाथाओं और इनकी टीका में स्पष्ट किया है। वहाँ ज्ञान का संदर्भ केवलज्ञान से लगाया है। इन चार गाथाओं और उनकी टीका में कथित केवलज्ञान को ही यहाँ अमितगति आचार्य ने संक्षेप में ज्ञान शब्द से अभिहित किया है। ध्यान का लक्षण -
ध्यानं विनिर्मलज्ञानं पुंसां संपद्यते स्थिरम् ।
हेमं क्षीणमलं किं न कल्याणत्वं प्रपद्यते ।।४७०।। अन्वय :- पुंसां विनिर्मलज्ञानं (यदा) स्थिरं (भवति; तदा) ध्यानं संपद्यते। (यतः) क्षीणमलं हेमं किं कल्याणत्वं न प्रपद्यते? (प्रपद्यते एव।)।
सरलार्थ :- पुरुषों का अर्थात् जीवों का निर्मल/सम्यग्ज्ञान जब स्थिर होता है, तब उस ज्ञान को ही ध्यान कहते हैं । यह ठीक ही है, क्योंकि किट्ट-कालिमादिरूप मल से रहित हुआ सुवर्ण क्या कल्याणपने को प्राप्त नहीं होता? अर्थात् शुद्ध सुवर्ण कल्याणपने को प्राप्त होता ही है। इस संसार में निर्मल सुवर्ण को कल्याण नाम से भी जाना जाता है।
भावार्थ :- आत्मवस्तु को यथार्थ जानना सम्यग्ज्ञान है और उसी आत्मवस्तु को अथवा अन्य पदार्थ को भी वीतराग भाव से यथार्थ जानते रहना ध्यान है।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/283]