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चूलिका अधिकार
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विषय को स्पष्ट करने के लिये स्फटिक एवं सूर्यकांतमणि के अलग-अलग दृष्टान्त दिये हैं, विषय दोनों का एक ही है। इस श्लोक में ग्रन्थकार ने मेघपटल का दृष्टान्त लिया है। कर्मरूप आवरण का नाश क्षणभर में -
धुनाति क्षणतो योगी कर्मावरणमात्मनि ।
मेघस्तोममिवादित्ये पवमानो महाबलः ।।४६५।। अन्वय :- महाबल: पवमानः आदित्ये मेघस्तोमं क्षणतः धुनाति इव योगी आत्मनि कर्मावरणं (क्षणतः धुनाति)। ___सरलार्थ :- जिसप्रकार सूर्य पर आये हुए मेघ समूह को तीव्र वेग/गति से चलनेवाला महाबलवान पवन क्षणभर में भगा देता है; उसीप्रकार आत्मा के ऊपर आये हुए कर्मों के आवरण को योगी क्षणभर में नष्ट कर देता है।
भावार्थ :- यहाँ ग्रंथकार कर्मावरण लिखकर मुख्यता से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्मों की ओर संकेत करते हुए क्षीणमोह गुणस्थान का ज्ञान कराना चाहते हैं। क्षणभर शब्द से यथायोग्य अंतर्मुहूर्त काल ही समझना चाहिए, एक समय नहीं।
वास्तविक देखा जाय तो सादि मिथ्यादृष्टि मनुष्य भी मात्र एक ही अंतर्मुहूर्त में (जिसमें अनेक अन्तर्मुहूर्त गर्भित हैं) मिथ्यात्व से लेकर चारों घाति एवं अघाति कर्मों का नाश करके सिद्धपद प्राप्त कर सकता है। इसके लिये धवल पुस्तक ४ पृष्ठ ३३६ अथवा व्याख्याकार की गुणस्थान विवेचन में 'गुणस्थानातीत सिद्ध' प्रकरण अंत का अंश देखें।
मोक्षप्राप्ति के पहले अधिक से अधिक ३२ बार भावलिंगी मुनिपना का स्वीकार भी शास्त्र में कहा गया है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद अधिक से अधिक किंचित् न्यून अर्धपुद्गलपरावर्तन काल पर्यंत संसार में जीव रहता है। ये सर्व विवक्षाएँ अलग-अलग अपेक्षा से सही हैं। योग का लक्षण -
विविक्तात्म-परिज्ञानं योगात्संजायते यतः।
स योगो योगिभिर्गीतो योगनिर्धूत-पातकैः ।।४६६।। अन्वय :- यतः योगात् विविक्तात्म-परिज्ञानं संजायते (ततः) योगनिधूत-पातकै: योगिभिः स: योग: गीतः।
सरलार्थ :- जिस योग से अर्थात् ध्यान से शुद्ध आत्मा का अत्यंत स्पष्ट ज्ञान होता है, उसे जिन्होंने योग के द्वारा पातक अर्थात् घातिकर्मों का नाश किया है - ऐसे योगियों ने योग कहा है। ___ भावार्थ :- इस श्लोक में योग का लक्षण कहा है। श्लोकगत योगी शब्द अरहंत पदधारी जीव के लिये ही आया है क्योंकि उस योगी ने घातिया कर्मों का नाश किया है।
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