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________________ चूलिका अधिकार २७९ चैतन्य को आत्मा का निरर्थक स्वभाव मानने का अर्थ यह होता है कि चैतन्य आत्मा का सार्थक (स्वकीय) स्वभाव न होकर उसका विभाव परिणाम हैं। कोई भी विभाव परिणाम पर के निमित्त बिना नहीं होता। आत्मा के विभाव परिणाम का कारण पौद्गलिक कर्म होता है, जिसे प्रकृति भी कहते हैं। विभाव परिणाम जब चैतन्यरूप है तब उसकी जननी प्रकृति भी ज्ञानरूप ठहरती है; परन्तु ज्ञान प्रकृति का धर्म नहीं है। उसे प्रकृति का धर्म मानने पर प्रकृति के चेतनपने का प्रसंग उपस्थित होता है, जिसे सांख्यमतावलम्बियों ने भी नहीं माना है। ____ यदि प्रकृति के चेतनधर्म का सद्भाव माना जायेगा तो उसको आत्मा (पुरुष) मानना अनिवार्य हो जायेगा; क्योंकि सांख्यों ने पुरुष/आत्मा को चेतनरूप में स्वीकार किया है और प्रकृति को जड़प होने पर निरर्थकपना कुछ नहीं बनता । ज्ञान आत्मा का स्वभाव होने से उसमें निरर्थकपने की संगति नहीं बैठती। ऐसी स्थिति में सांख्यों की उक्त मान्यता सदोष ठहरती है। मुक्ति में भी आत्मा का अभाव नहीं - नाभावो मुक्त्यवस्थायामात्मनो घटते ततः। विद्यमानस्य भावस्य नाभावो युज्यते यतः ।।४६१॥ अन्वय :- यत: विद्यमानस्य भावस्य अभाव: न युज्यते तत: मुक्त्यवस्थायां आत्मनः अभावः (अपि) न घटते। सरलार्थ:- क्योंकि विद्यमान/सतस्वरूप वस्त का कभी अभाव नहीं होता. यह त्रैकालिक सत्य है; इसलिए मुक्त अवस्था में भी आत्मा का अभाव कभी घटित नहीं होता। भावार्थ :- द्रव्य का लक्षण सत् अर्थात् स्वत:सिद्ध है। विश्व में स्थित कोई भी सत्स्वरूप वस्तु/द्रव्य है, उसका कभी सर्वथा नाश नहीं होता; इस महान सत्य को इस श्लोक में बताया है। द्रव्य की अवस्था बदलना जुदी बात है और द्रव्य का सर्वथा नाश हो जाना जुदी बात है । इस विषय का समर्थन आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५ के सूत्र २९ में 'सद्रव्यलक्षणम्' द्वारा किया है। आचार्य समंतभद्र ने भी 'सतो न नाशः' (सत् का नाश नहीं होता) इन शब्दों से स्पष्ट किया है। आचार्य कुंदकुंद ने भी प्रवचनसार तथा पंचास्तिकायसंग्रह की अनेक गाथाओं में इसे समझाया है। इस श्लोक से सहज ही बौद्ध मत का भी निराकरण हो जाता है। बौद्ध दर्शन की मान्यता के अनुसार प्रदीप के बुझ जाने के समान मुक्त अवस्था में आत्मा का नाश हो जाता है। जीव के स्वभाव-विभाव का दृष्टान्त सहित निरूपण - यथा चन्द्रे स्थिता कान्तिर्निर्मले निर्मला सदा। प्रकृतिर्विकृतिस्तस्य मेघादिजनितावृतिः ।।४६२।। तथात्मनि स्थिता ज्ञप्तिर्विशदे विशदा सदा। प्रकृतिर्विकृतिस्तस्य कर्माष्टककृतावृतिः ।।४६३।। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/279]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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