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________________ चारित्र अधिकार २६३ आदर होना अतिशय हितकारक है। भावार्थ :- इस श्लोक में शास्त्र शब्द से मात्र द्रव्यश्रुतरूप आगम ही नहीं समझना । यहाँ शास्त्र का अर्थ देशना अर्थात् भावभासनापूर्वक तत्त्वोपदेश समझना आवश्यक है। मोक्ष-प्राप्त अनंत जीवों में अथवा अभी जो मोक्षमार्गी हो गये हैं उनमें अथवा भविष्य-काल में जो मोक्षमार्गी होंगे, उनमें एक भी देशनालब्धि के बिना धार्मिक नहीं बना है, यह सर्वथा नियम समझना चाहिए । सम्यक्त्व की प्राप्ति के पूर्व क्षयोपशमादि पाँच लब्धियाँ अनिवार्य रहती हैं - उनमें एक देशना-लब्धि भी है। प्रवृत्ति के अभाव से पुरुषार्थ की विभिन्नता - अर्थकामाविधानेन तदभावः परं नृणाम् । धर्माविधानतोऽनर्थस्तदभावश्च जायते ।।४२७।। अन्वय :- नृणां अर्थकाम-अविधानेन तदभाव: (जायते); परं धर्म-अविधानतः तदभाव: च अनर्थः जायते। सरलार्थ :- अर्थ एवं कामपुरुषार्थ के साधनों में प्रवृत्ति न करने से किसी मनुष्य के जीवन में इन दोनों पुरुषार्थों का कदाचित् अभाव हो सकता है; परन्तु धर्मपुरुषार्थ के साधनों में प्रवृत्ति न करने से धर्मपुरुषार्थ का मात्र अभाव ही नहीं होता, धर्मपुरुषार्थ के साधनों में अनर्थ अर्थात् विपरीतता भी घटित होती है। अतः धर्मपुरुषार्थ के साधनों में प्रवृत्ति आवश्यक है। भावार्थ :- अर्थ पुरुषार्थ का भाव धन-प्राप्त करने के उपायों से है और काम पुरुषार्थ का मतलब इंद्रिय-विषयों के भोगों से है। दोनों पापरूप अभिप्राय से गर्भित हैं। इन दोनों पुरुषार्थों में प्रवृत्ति और पूर्वभव के पुण्य का उदय न हो तो मनुष्य को धन और भोगों की प्राप्ति नहीं होगी। यदि धर्म-पुरुषार्थ के साधन अर्थात् व्यवहारधर्म के साधनों में मनुष्य प्रवृत्त नहीं होगा तो उन साधनों के संबंध में अर्थात् देव-शास्त्र-गुरु की उपासना की प्रवृत्ति में यथार्थता नहीं रहेगी तो परम्परा से मूल वीतरागभावरूप धर्म का भी अभाव हो जायेगा । इसलिए मनुष्य को ज्ञानियों के तत्त्वज्ञानगर्भित व्यवहार-धर्म पुरुषार्थ के साधनों में निज भगवान की उपासना को ऊर्ध्व/मुख्य रखते हुए प्रवृत्ति करना चाहिए। चारों पुरुषार्थों के आध्यात्मिक स्वरूप का ज्ञान करने के लिये नाटक समयसार के बंध अधिकार के १४ वें तथा १५ वें छन्द को जरूर देखिए। एक शास्त्रज्ञान/तत्त्वज्ञान ही जीवों को मार्गदर्शक - तस्माद्धर्मार्थिभिः शश्वच्छास्त्रे यत्नो विधीयते। मोहान्धकारिते लोके शास्त्रं लोक-प्रकाशकम् ।।४२८।। अन्वय :- तस्मात् धर्मार्थिभिः शास्त्रे शश्वत यत्नः विधीयते । मोह-अन्धकारिते लोके शास्त्रं (एव) लोक-प्रकाशकं (भवति)। सरलार्थ :- इसलिए जो भव्यात्मा वास्तविकरूप से यथार्थ धर्म के अभिलाषी अर्थात् इच्छुक हैं, वे सदा शास्त्रोपदेश की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करते हैं । अति दुःखद-मोहरूपी अंधकार से परिपूर्ण [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/263]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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