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चारित्र अधिकार
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चित्रायते, ततः तासां निर्वृति: न (जायते)।
सरलार्थ :- क्योंकि स्त्रियों के चित्त में प्रमद, विषाद, ममता, ग्लानि, ईर्ष्या, भय तथा माया चित्रित रहती है, इससे स्त्रियों को/स्त्री-पर्याय से मुक्ति नहीं होती।
भावार्थ :- स्त्री-पर्याय में मुक्ति नहीं हो पाती; यह वस्तु स्वरूप है। इस कथन में राग-द्वेष काम नहीं करते; क्योंकि यह कथन राग-द्वेष रहित वीतरागी जिनेन्द्रों ने कहा है। मुक्ति न होने के कारण जो बताए जा रहे हैं, वे भी बुद्धिगम्य हैं, अंधश्रद्धा के पोषक नहीं हैं।
आचार्यश्री जयसेनमान्य प्रवचनसार की गाथा २४७ में यह भाव स्पष्ट किया गया है। अतः उक्त गाथा और उसकी टीका को अवश्य पढ़े। दोष की अनिवार्यता चौथा कारण -
न दोषेण बिना नार्यो यतः सन्ति कदाचन।
गात्रं च संवृतं तासां संवृतिर्विहिता ततः ।।४०३।। अन्वय :- यत: दोषेण विना नार्यः कदाचन न सन्ति । तासां च गात्रं संवृतिः विहिता (भवति)। ततः (तेभ्यः) संवृतं (व्यवस्था प्रोक्तम्)।
सरलार्थ :- क्योंकि स्त्रियाँ पूर्वोक्त अनेक दोषों में से किसी न किसी दोष के बिना कदाचित् भी नहीं होती इसलिए उनका गात्र - अंग-उपांग स्पष्टतः संवृत्त अर्थात् स्वभाव से ही वस्त्र से ढका हुआ रहता है; इसलिए उनके लिये वस्त्र-आवरण सहित लिंग की व्यवस्था की गई /कही गयी है। __ भावार्थ :- श्लोक ४०२ में स्त्रियों के अनेक दोष बताये गये हैं; उनमें से किसी स्त्री को एक भी दोष न हो, ऐसा कभी नहीं हो सकता। इसकारण निर्वाण प्राप्ति के बाधक कारणों के सद्भाव से उनको स्त्री-पर्याय से मुक्ति अशक्य है।
इस ही अर्थ को बतानेवाली आचार्य जयसेनमान्य प्रवचनसार गाथा २४८ तथा उसकी टीका को, जिज्ञासु अवश्य देखे। निर्वाण को रोकनेवाला पाँचवाँ कारण -
शैथिल्यमार्तवं चेतश्चलनं स्रावणं तथा।
तासा सूक्ष्म-मनुष्याणामुत्पादोऽपि बहुस्तनौ ।।४०४।। अन्वय :- तासां (स्त्रीणां शरीरे) शैथिल्यं, आर्तवं, स्रावणं, चेत: चलनं तथा तनौ सूक्ष्ममनुष्याणां बहुः उत्पादः अपि (जायते)।
सरलार्थ :- क्योंकि उन स्त्रियों के शरीर में शिथिलता, ऋतुकाल, रक्तस्राव, चित्त की चंचलता और उनके अंग-उपांग में लब्ध्यपर्याप्तक सूक्ष्म मनुष्यों का उत्पाद होता रहता है। (इस कारण अहिंसा महाव्रत का पालन/संयम का पालन नहीं हो पाता)।
भावार्थ :- प्रवचनसार की जयसेनाचार्यकृत टीका में आगत २४९ गाथा में भी इसी विषय को
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/251]