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योगसार-प्राभृत
करते हैं, पैसे का ठहराव करके भोजन करते हैं, अपने इष्टजनों को पैसा दिलाते हैं, पुस्तकें छपाछपाकर बिक्री करते-कराते रुपया जोड़ते हैं, तालाबन्द बोक्स रखते हैं, बोक्स की ताली कमण्डलु आदि में रखते हैं, पीछी में नोट छिपाकर रखते हैं, अपनी पूजायें बनवाकर छपवाते हैं और अपनी जन्मगाँठ का उत्सव मनाते हैं। ये सब लक्षण उक्त भवाभिनन्दियों के हैं, जो श्लोक के संज्ञावशीकृताः और लोकपंक्तिकृतादराः इन दोनों विशेषणों से फलित होते हैं और आजकल अनेक मुनियों में लक्षित भी होते हैं।" भवाभिनन्दी का ही पुनः स्पष्ट स्वरूप -
मूढा लोभपराः क्रूरा भीरवोऽसूयकाः शठाः ।
भवाभिनन्दिनः सन्ति निष्फलारम्भकारिणः ।।३७५।। अन्वय :- ये मूढाः लोभपराः क्रूरा: भीरवः असूयकाः शठाः निष्फल-आरम्भ-कारिण: (ते) भवाभिनन्दिनः सन्ति ।
सरलार्थ :- जो मूढ अर्थात् मिथ्यादृष्टि, लोभ परिणाम करने में सदा तत्पर, अत्यन्त क्रूर स्वभावी, महा डरपोक, अतिशय ईर्षालु; विवेक से सर्वथा रहित, निरर्थक आरंभ करनेवाले जीव हैं, वे निश्चितरूप से भवाभिनन्दी अर्थात् अनन्त संसारी हैं।
भावार्थ :- स्पष्ट है। लोकपंक्ति का स्वरूप -
आराधनाय लोकानां मलिनेनान्तरात्मना।
क्रियते या क्रिया बालैर्लोकपङ्क्तिरसौ मता ।।३७६।। अन्वय :- बालैः (अज्ञ-साधुभिः) मलिनेन-अन्तरात्मना लोकानां आराधनाय या क्रिया क्रियते असौ लोकपङ्क्तिः मता।
सरलार्थ :- मलिन अंतरंगवाले होने से अर्थात् बहिरात्मपर्याय से सहित होकर विषय-कषाय में अनुरक्त तत्त्वज्ञान से रहित अज्ञ साधुओं द्वारा जनसामान्य का अनुरंजन अर्थात् सामान्यजन को प्रसन्न करने एवं उनको अपनी ओर आकर्षित करने के लिये मिथ्या व्रतादिरूप क्रिया की जाती है, उसे लोकपंक्ति कहते हैं।
भावार्थ :- प्रवचनसार गाथा - २२३ में असंयमी जनों से अपेक्षित किसी भी वस्तु का स्वीकार अथवा कोई कार्य मुनिराज को नहीं करना चाहिए; ऐसा स्पष्ट संकेत दिया है। अतः जनसामान्य को खुश करने के लिये मुनिराज को कुछ भी नहीं करना चाहिए; यह बात स्वयमेव स्पष्ट हो जाती है। साधु का पद ही अलौकिक है, वहाँ लौकिक जनों से संबंध क्यों रखना?
प्रवचनसार गाथा २२६ में इहलोगणिरावेक्खो - इस लोक से निरपेक्ष, यह विशेषण साधु के लिये दिया है। उसीप्रकार गाथा-२५३ में भी आचार्य कुन्दकुन्द ने संघ की व्यवस्था के लिए लौकिक जनों से सम्पर्क निन्दित नहीं है - ऐसा कहा है और इसी गाथा की टीका में अमृतचन्द्राचार्य
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