________________
२३०
षट् आवश्यक :- - सामायिक, स्तव, वंदना, कायोत्सर्ग, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान ।
इतर सात गुण :- सरलार्थ में स्पष्ट दिये ही हैं।
इनमें ५ महाव्रत मुख्य हैं और शेष उनका परिकर है। इस हेतु प्रवचनसार की गाथा २०६-२०९ पठनीय है।
छेदोपस्थापक मुनिराज का स्वरूप -
निष्प्रमादतया पाल्या योगिना हितमिच्छता ।
सप्रमादः पुनस्तेषु छेदोपस्थापको यतिः । । ३६४।।
योगसार-प्राभृत
अन्वय :
• हितं इच्छता योगिना निष्प्रमादतया (मूलगुणाः) पाल्या: । पुनः तेषु सप्रमादः यति: छेदोपस्थापकः (भवति) ।
सरलार्थ :- जो योगी अपना हित चाहते हैं, उनको इन २८ मूलगुणों का प्रमादरहित होकर पालन करना चाहिए। जो इन मूलगुणों के पालन में प्रमादरूप प्रवर्तते हैं, वे योगी छेदोपस्थापक होते हैं। (मूल श्लोक में एकवचन का प्रयोग होने पर भी सरलार्थ में बहुमान के लिए बहुवचन का प्रयोग किया है )
भावार्थ :- जिन गुणों अर्थात् व्रतों के अभाव में मुनिपना ही नहीं रहता, उन्हें मूलगुण कहते हैं। अतः प्रमादवश किसी भी एक अथवा अनेक मूलगुणों का छेद / नाश अथवा अभाव होते ही मुनिपने का अभाव हो जाता है । अतः उनका पालन करने में मुनिराज को अत्यन्त दत्तचित्त / सावधान रहना चाहिए । प्रवचनसार गाथा २०९ के अंतिम चरण में इसी विषय को संक्षेप में निम्न शब्दों में स्पष्ट किया है - तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि । अर्थ - उनमें प्रमत्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक होता है ।
प्रवचनसार गाथा २१६ तथा उसकी टीका का अध्ययन इस श्लोक को समझने के लिये अत्यंत उपयोगी है; उसे पाठक अवश्य देखें। वहाँ अशुद्धोपयोग को छेद कहा है।
श्रमणों के दो भेद -
प्रव्रज्या - दायकः सूरिः संयतानां निगीर्यते ।
निर्यापकाः पुनः शेषाश्छेदोपस्थापका मताः ।। ३६५।।
अन्वय :- संयतानां प्रव्रज्या - दायक: सूरिः निगीर्यते । पुन: शेषा: (श्रमणाः) छेदोपस्थापकाः निर्यापकाः मता: ।
सरलार्थ • जीवन में प्रथम बार दीक्षा लेनेवाले नवीन दीक्षार्थी संयमियों को जो मुनिराज दीक्षा देते हैं, उन दीक्षादाता मुनिराज को सूरि, आचार्य अथवा गुरु कहते हैं। पहले से ही दीक्षा प्राप्त मुनिराज के संयमपालन में कुछ दोष लगने पर दोष प्राप्त मुनिराज को आगमानुसार उपदेश देकर जो मुनिराज उनको पुनः : संयम में स्थापित करते हैं, उन मुनिराज को निर्यापक कहते हैं ।
[C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/230]