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योगसार-प्राभृत
गमाता है। उसीतरह शास्त्र-ज्ञान करने पर भी आत्मध्यान से अपना जीवन अध्यात्ममय/मोक्षमार्गमय नहीं बना पाता, मात्र पण्डिताई, वाद-विवाद, चर्चा, शंका-समाधान में दुर्लभ मनुष्य जीवन लगाता है, उसका जीवन भी व्यर्थ जाता है। आचार्य करुणापूर्वक विद्वानों को आत्मध्यान से जीवन सफल बनाने के लिये प्रेरणा दे रहे हैं। सध्यानरूपी खेती करने की प्रेरणा -
ज्ञान-बीजं परं प्राप्य मानुष्यं कर्मभूमिषु।
न सद्ध्यानकृषेरन्तः प्रवर्तन्तेऽल्पमेधसः ।।३४७।। अन्वय :- कर्मभूमिषु परं मानुष्यं ज्ञान-बीजं (च) प्राप्य (ये) सत्-ध्यान-कृषेः अन्त: न प्रवर्तन्ते (ते) अल्पमेधसः (भवन्ति)। ___ सरलार्थ :- कर्मभूमियों में दुर्लभ मनुष्यता और सर्वोत्तम ज्ञानरूपी बीज को पाकर भी जो मनुष्य प्रशस्त ध्यानरूप खेती के भीतर प्रवृत्त नहीं होते अर्थात् मोक्षप्रदाता सम्यग्ध्यान की खेती नहीं करते, वे मनुष्य अल्पबुद्धि अर्थात् अज्ञानी है। ___ भावार्थ :- इस श्लोक में जो मनुष्य संज्ञी पंचेन्द्रिय योग्य ज्ञान का विकास पाकर भी सद्ध्यान नहीं कर पाते, उन्हें बीज और खेती का दृष्टान्त देकर अल्पज्ञ कहा है और सद्ध्यान की प्रेरणा दी है। मोहान्धकार को धिक्कार -
__बडिशामिषवच्छेदो दारुणो भोग-शर्मणि ।
सक्तास्त्यजन्ति सद्ध्यानं धिगहो! मोह-तामसम् ।।३४८।। अन्वय :- भोग-शर्मणि बडिशामिषवत् दारुण: छेदः (भवति; तथापि ये भोग-शर्मणि) आसक्ताः (सन्ति ते) सद्ध्यानं त्यजन्ति, अहो ! मोह - तामसं धिक्।।
सरलार्थ :- जिसप्रकार शिकारी की बंशी में लगे हुए मांस के टुकड़े को खाने की इच्छा से मछली को कण्ठच्छेद से अतिशय दुःख होता है; उसीप्रकार सर्वोत्तम ज्ञानरूपी बीज को पाकर भी इंद्रिय-सुख में आसक्त/दुःखी मनुष्य जिस मोह के कारण सध्यान का त्याग करते हैं, उस मोहरूपी अंधकार को धिक्कार हो।
भावार्थ :- ग्रंथकार आचार्य हैं। उन्हें अपने आत्मध्यान से उत्पन्न सुख का ज्ञान तथा अनुभव है और उसी समय कुछ जीव मोहवश ध्यान का आनंद नहीं ले रहे हैं, इसकारण वे जीव दुःखी हैं, यह भी वे जान रहे हैं। इसलिए दुःखी जीव के मोह को धिक्कारते हुए स्वयं ज्ञाता-दृष्टा रहते हैं; क्योंकि इससे अधिक वे कुछ कर भी तो नहीं सकते। मोही जीवों का स्वरूप -
आत्म-तत्त्वमजानाना विपर्यास-परायणाः।
हिताहित-विवेकान्धाः खिद्यन्ते सांप्रतेक्षणाः ।।३४९।। अन्वय :- (ये जीवाः) आत्म-तत्त्वं-अजानाना, हित-अहित-विवेकान्धाः, विपर्यास
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