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योगसार-प्राभृत
उनका साधकपना भी नष्ट हो जाता है। सिद्ध होने का साक्षात् साधन -
विभक्तचेतन-ध्यानमत्रोपायं विदुर्जिनाः ।
गतावस्तप्रमादस्य सन्मार्ग-गमनं यथा ।।३३६।। अन्वय :- यथा गतौअस्तप्रमादस्य (मनुष्यस्य) सन्मार्ग-गमनं तथा विभक्तचेतन-ध्यानं अत्र उपायं (अस्ति इति) जिनाः विदुः।
सरलार्थ :- जिसप्रकार प्रमाद अर्थात् आलस्य रहित मनुष्य का सन्मार्ग पर सतत गमन करना अपेक्षित स्थान पर्यंत पहुँचने का सच्चा उपाय है; उसीप्रकार परमात्म-पद प्राप्ति का अथवा तत्त्वांतगति अर्थात् मुक्ति में पहुँचने का उपाय विभक्त चेतन अर्थात् शुद्धात्मा के ध्यान को ही जिनेन्द्र भगवंतों ने बतलाया है।
भावार्थ :- यह मोक्षाधिकार होने से शुद्धात्मा के ध्यानरूप उपाय से परमात्म-पद की प्राप्ति होती है; ऐसा कथन किया है। वास्तविक देखा जाय तो मिथ्यादृष्टि से लेकर सभी साधक जीवों को अपने शुद्धात्मा का ध्यान करना ही धार्मिक बनने का,सुखी होने का, परमात्मपद प्राप्ति का उपाय है।
प्रश्न :- क्या मिथ्यादृष्टि भी अपने शुद्ध आत्मा का ध्यान कर सकते हैं?
उत्तर :- क्यों नहीं? अन्य साधक जीवों ने भी सम्यग्दृष्टि बनने का यत्न मिथ्यात्व अवस्था में ही किया है। मिथ्यादृष्टि को सम्यग्दृष्टि बनना हो तो शुद्धात्मा का ध्यान करना ही तो साधन है । वास्तव में देखा जाय तो जो साधक अर्थात् श्रावक अथवा मुनिराज हो गये हैं उनसे भी अधिक आवश्यकता शुद्धात्मा के ध्यान की मिथ्यादृष्टि को है; क्योंकि उसे अभी साधक बनना है। साधक को सिद्ध परमात्मा होने के लिये और मिथ्यादृष्टि जीव को भी साधक होने के लिये शुद्धात्मा के ध्यान की जरूरत है। शुद्धात्म-ध्यान से कर्मों का नाश -
योज्यमानो यथा मन्त्रो विषं घोरं निषूदते ।
तथात्मापि विधानेन कर्मानेकभवार्जितम् ।।३३७।। अन्वय :- यथा योज्यमानः मन्त्र: घोरं विषं निषूदते तथा आत्मा अपि (ध्यान) विधानेन अनेक-भवार्जितं कर्म (निषूदते)।
सरलार्थ :- जिसप्रकार मंत्रज्ञ आत्मा विषापहार मंत्र का यथायोग्य प्रयोग करने पर सर्पादिक का घोर विष दूर करता है, उसीप्रकार आत्मा निज शुद्धात्मा के सम्यक्ध्यान से अनेक भवों में उपार्जित ज्ञानावरणादि कर्मसमूह को नष्ट करता है। __ भावार्थ :- इस श्लोक में शुद्धात्मा का ध्यान और कर्मों का नाश - इन दोनों में निमित्तनैमित्तिक संबंध का ज्ञान कराया है। दो द्रव्यों की दो पर्यायों में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक संबंध होता है। ध्यान यह जीव द्रव्य की पर्याय है और कर्मों का नाश होना यह कर्मरूप पुद्गल की अवस्था का
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