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________________ मनोगत योगसार प्राभृत ग्रंथ का हिन्दी भाषा में सबसे पहले अनुवाद पण्डित गजाधरलालजी ने किया है; जो सनातन जैन ग्रंथमाला कलकत्ता से इसवी सन् १९१८ में छपा है। तदनंतर पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तार साहब ने विशेष संशोधन करके नये हिन्दी अनुवाद के साथ उसे संपादित किया है, जो भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली से सन् १९७९ से प्रकाशित हुआ है। ___योगसार प्राभृत ग्रंथ का साध्याय करने का सुअवसर मुझे सबसे पहले सोनगढ़ में १९७९ में मिला । मुझे यह ग्रंथ अतिशय प्रिय लगा। सन् १९८३ में दूसरी बार बैंगलोर में मैं कन्नड भाषा में कुंदकुंद साहित्य प्रकाशन निमित्त रुका था, वहां मिले अतः इस ग्रंथ की मुझे अधिक महिमा आयीं। बीच में अनेक वर्षों तक मैं इस ग्रन्थ का विशेषतापूर्वक अध्ययन कर नहीं पाया। २००१ इसवी में मैंने तीसरी बार योगसार प्राभृत का सूक्ष्मता से अध्ययन किया। इस कारण मुझे योगसार प्राभृत के कर्ता आचार्य अमितगति के प्रति महान बहुमान आया; क्योंकि इस समय आचार्य कुंदकुंद के पंच परमागमों में समागत १४५३ गाथाओं के मर्म को योगसार प्राभृत ग्रंथ में मात्र ५४० श्लोकों में समाहित किया हुआ मुझे स्पष्ट प्रतीत हुआ। ____ मुझे योगसार प्राभृत शास्त्र का अनुवाद एवं भावार्थ लिखने का मूल कारण यही रहा । अध्यात्म रसिक मुमुक्षु समाज को भी यह विषय बताने का मेरी भावना तीव्र होती रही। मैं अपने प्रवचन एवं कक्षाओं में भी योगसार प्राभृत का प्रसंगानुसार उल्लेख करता रहा। इसलिए मैंने स्वान्तःसुखाय यह व्याख्या लिखी है। आचार्य कंदकंदादि प्राचीन आचार्यों के साहित्य से योगसार प्राभत का अत्यंत निकटता दिखाने के उद्देश्य से “योगसार-प्राभत पर पर्व साहित्य का प्रभाव शीर्षक" से मैंने अलग से ही विस्तार के साथ सब स्पष्ट किया है, जिससे पाठक भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे; ऐसा मुझे विश्वास है। ___मैं आशा रखता हूँ कि अध्यात्म रसिक समाज योगसार-प्राभृत शास्त्र का स्वाध्याय कर अपना आत्मकल्याण करे । इस शास्त्र के अध्ययन से आचार्य कुंदकुंद की अपूर्वता तथा अलौकिकता भी हमें समझ में आना चाहिए। योगसार-प्राभृत शास्त्र अध्ययन के कारण अनेक साधर्मी आचार्य कुंदकुंदकृत के पंच परमागमों का फिर से अधिक उत्साह से अभ्यास किए बिना नहीं रहेंगे। ___ अनुवाद करते तथा भावार्थ लिखते समय इससे पूर्व प्रकाशित दोनों अनुवादों का मैंने यथाअवसर उपयोग किया है, यह मान्य करने में मुझे कुछ संकोच नहीं है। पूर्व अनुवादों से और भावार्थों से भी विषय को अधिक सरल तथा स्पष्ट बनाने का प्रयास किया है। इसमें मैं कितना सफल हुआ हूँ, यह रसिक पाठक समाज ही स्वयं निर्णय करेगी। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/326]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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