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निर्जरा अधिकार
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ज्ञेय-लक्ष्येण विज्ञाय स्वरूपं प र म । म न : ।
व्यावृत्त्य लक्ष्यतः शुद्धं ध्यायतो हानिरंहसाम् ।।२९२।। अन्वय :- ज्ञेय-लक्ष्येण परमात्मनः स्वरूपं विज्ञाय लक्ष्यत: व्यावृत्त्य शुद्धं ध्यायत: अंहसां हानिः (जायते)। ___सरलार्थ :- ज्ञेय के लक्ष्य द्वारा परमात्मा के स्वरूप को जानकर और लक्ष्यरूप से व्यावृत होकर शुद्ध स्वरूप का ध्यान करनेवाले के कर्मों का नाश होता है।
भावार्थ :- जो लोग ज्ञेय को जानने में प्रवृत्त होते हुए भी ज्ञायक को जानने में अपने को असमर्थ बतलाते हैं, उन्हें यहाँ ज्ञेय के लक्ष्य से आत्मा के उत्कृष्ट स्वरूप को जानने की बात कही गयी है। साथ ही यह सुझाया गया है कि इसतरह ज्ञेय के शुद्ध स्वरूप के सामने आने पर ज्ञेय के लक्ष्य को छोड़कर अपने उस शुद्ध स्वरूप का ध्यान करो, जिससे कर्मों की निर्जरा होती है। इसीका दृष्टान्तपूर्वक समर्थन करते हैं -
चटटकेन यथा भोज्यंगहीत्वा स विमच्यते ।
गोचरेण तथात्मानं विज्ञाय स विमुच्यते ।।२९३।। अन्वय :- यथा चट्टकेन भोज्यं गृहीत्वा सः (चट्टक:) विमुच्यते तथा गोचरेण (ज्ञेयलक्ष्येण) आत्मानं विज्ञाय सः (गोचरः ज्ञेयः) विमुच्यते।
सरलार्थ :- जिस प्रकार कड़छी/चम्मच से भोजन ग्रहण करके उसे/चम्मच को छोड़ दिया जाता है उसी प्रकार गोचर के - ज्ञेय लक्ष्य-द्वारा आत्मा को जानकर ज्ञेय को छोड़ दिया जाता है।
भावार्थ :- यहाँ कड़छी-चम्मच के उदाहरण द्वारा पूर्व श्लोक में वर्णित विषय को स्पष्ट किया गया है। कडछी-चम्मच का उपयोग जिसप्रकार भोजन के ग्रहण करने में किया जाता है. उसीप्रकार आत्मा के जानने में ज्ञेय के लक्ष्य का उपयोग किया जाता है। आत्मा के ग्रहण हो जानेपर ज्ञेय का लक्ष्य छोड़ दिया जाता है, और अपने ग्रहीत स्वरूप का ध्यान किया जाता है। आत्मप्राप्त ज्ञानी सुखी -
उपलब्धे यथाहारे दोषहीने सुखासिकः।
आत्मतत्त्वे तथा क्षिप्रमित्यहो ज्ञानिनां रतिः ।।२९४।। अन्वय :- यथा दोषहीने आहारे उपलब्धे सुखासिकः तथा आत्मतत्त्वे ( उपलब्धे) क्षिप्रं (सुखासिकः) इति ज्ञानिनां अहो रतिः!
सरलार्थ :- जिसप्रकार लौकिक जीवन में दोषरहित भोजन मिलने पर मनुष्य को सुख मिलता है, उसीप्रकार शुद्ध आत्मतत्त्व के प्राप्त होने पर ज्ञानी जीव को तत्काल सुख मिलता है। यह ज्ञानियों
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/193]