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योगसार-प्राभृत
ज्ञान को जानने से ज्ञानी जीव का ज्ञान होता है -
न ज्ञान-ज्ञानिनोर्भेदो विद्यते सर्वथा यतः।
ज्ञाने ज्ञाते ततो ज्ञानी ज्ञातो भवति तत्त्वतः ।।२८७ ।। अन्वय :- यतः ज्ञान-ज्ञानिनोः सर्वथा भेदः न विद्यते । ततः तत्त्वतः ज्ञाने जाते (सति) ज्ञानी ज्ञातः (इति) भवति ।
सरलार्थ :- क्योंकि ज्ञान और ज्ञानी जीव में सर्वथा भेद विद्यमान नहीं है; इसलिए ज्ञान को जानने से वास्तविक देखा जाय तो ज्ञानी जीव का ही ज्ञान होता है।
भावार्थ :- ज्ञान और ज्ञानी एक दूसरे से सर्वथा भिन्न नहीं हैं। ज्ञान गुण है और ज्ञानी गुणी है, और गुण-गुणी में सर्वथा भेद नहीं होता; दोनों का तादात्म्य-सम्बन्ध होता है । इसलिए वास्तव में ज्ञान को जानने पर ज्ञानी (आत्मा) की सत्ता का ज्ञान होता है। यहाँ सर्वथा भेद न होने की जो बात कही गयी है वह इस बात को सूचित करती है कि दोनों में कथंचित् भेद है, जो कि संज्ञा (नाम), संख्या, लक्षण तथा प्रयोजनादि की दृष्टि से भेद हुआ करता है, जैसा कि स्वामी समन्तभद्र के देवागम श्लोक ७२ से प्रकट है :
संज्ञा-संख्या-विशेषाच्च स्वलक्षण-विशेषतः।
प्रयोजनादि-भेदाच्च तन्नानात्वं न सर्वथा ।। श्लोकार्थ :- द्रव्य और पर्याय में कथंचित् संज्ञा का भेद हैं, संख्या का भेद है, स्वलक्षण का भेद है और प्रयोजन का भेद है । आदि शब्द से कालादि के भेद का भी ग्रहण किया गया है । यह भेद सर्वथा नहीं है। ज्ञानवान द्रव्य ही वस्तु को जानता है -
ज्ञानं स्वात्मनि सर्वेण प्रत्यक्षमनुभूयते।
ज्ञानानुभवहीनस्य नार्थज्ञानं प्रसिद्धयति ।।२८८।। अन्वय :- सर्वेण स्व-आत्मनि ज्ञानं प्रत्यक्षं अनुभूयते । ज्ञानानुभवहीनस्य अर्थज्ञानं न प्रसिद्ध्यति।
सरलार्थ :- एकेन्द्रियादि प्रत्येक जीव अपनी आत्मा में विद्यमान ज्ञान गुण के जाननरूप कार्य का अनुभव करता है। जो द्रव्य अपने में ज्ञान न होने से जाननरूप अनुभव से रहित है अर्थात् अचेतन है, उसे किसी भी द्रव्य का ज्ञान सिद्ध नहीं होता।
भावार्थ :- एकेन्द्रियादि सर्व जीव अपनी भाव-इंद्रियों के अनुसार ज्ञान का अनुभव करते हैं अर्थात् स्पर्शादि विषयों को और अन्य पदार्थों को भी जानते हैं। वनस्पति जीव है और वह जानता है, यह विषय तो वैज्ञानिकों ने प्रयोग करके भी सिद्ध किया है; परन्तु वे अभी तक भी पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को जीव नहीं मानते। इसे जिनवाणी में तो पहले से ही स्वीकार किया गया है। पृथ्वीकायिकादि जीव भी एक स्पर्शनेन्द्रिय से जानते हैं । जीव द्रव्य ज्ञानमय है, वह अपने में स्थित
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