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योगसार-प्राभृत
सोऽन्ने सिद्धे गृहे शङ्के भिक्षां भ्रमति मूढधीः ।।२७४।। अन्वय :- परमात्मनि देहस्थे (सति) यः देवं अन्यत्र वीक्षते सः मूढ़धी: गृहे अन्ने सिद्धे शङ्के (सति) भिक्षांभ्रमति।
सरलार्थ :- वास्तविक देखा जाय तो अपने ही देहरूपी देवालय में परमात्मदेव विराजमान होने पर भी जो अज्ञानी परमात्मदेव को अन्यत्र मंदिर, तीर्थक्षेत्र आदि स्थान में ढूँढता है, मैं अमितगति आचार्य समझता हूँ कि वह मूढ़बुद्धि अपने ही घर में पौष्टिक और रुचिकर भोजन तैयार होने पर भी दीन-हीन बनकर भिक्षा के लिये अन्य के घरों में भ्रमण करता है।
भावार्थ :-पिछले श्लोक का ही मर्म उदाहरण देकर इस श्लोक में ग्रंथकार ने स्पष्ट किया है। ऐसा ही भाव योगीन्दुदेव ने योगसार गाथा ४३ में बताया है, उसका हिन्दी पद्यानुवाद इसप्रकार है -
जिनदेव तनमन्दिर रहे जन मन्दिरों में खोजते।
हँसी आती है कि मानो सिद्ध भोजन खोजते॥ मोह से जीव, कर्मों से बँधता है -
कषायोदयतो जीवो बध्यते कर्मरज्जुभिः।
शान्त-क्षीणकषायस्य त्रुट्यन्ति रभसेन ताः ।।२७५।। अन्वय :- कषाय-उदयतः (मूढ़ः) जीवः कर्म-रज्जुभिः बध्यते । शान्त-क्षीण-कषायस्य (जीवस्य) ता: (कर्म-रज्जव:) रभसेन त्रुट्यन्ति ।
सरलार्थ :- (मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद और) कषाय के उदय से अर्थात् मोह-रागद्वेषरूप परिणामों से यह अज्ञानी जीव आठ कर्मरज्जुरूप बंधनों से बंधता है और जिनके कषायादि विभाव शांत अथवा क्षीण हो जाते हैं, उनके वे कर्म रज्जुबंधन शीघ्र टूट जाते हैं।
भावार्थ :- इस श्लोक में ग्रंथकार कषायों के शांत व क्षीण - इन दो शब्दों से उपशांतमोह और क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती मुनिराजों को नया साम्परायिक आस्रव-बंध नहीं होता, यह विषय स्पष्ट कर रहे हैं।
प्रश्न :- उपशांतमोही मुनिराज ग्यारहवें गुणस्थान से नियम से नीचे गिरते हैं और कोई कदाचित् संसार में पुनः कछ मर्यादित काल पर्यन्त अटक सकते हैं. ऐसा शास्त्र में हमने पढ़ा है। आप उपशांत मोही के भी कर्म-बंधन टूटते हैं, ऐसा बता रहे हैं, हम क्या समझें?
उत्तर :- मुनिराज जबतक उस उपशांतमोह गुणस्थान में रहते हैं, तबतक नया बंध नहीं होता - ऐसा ग्रन्थकार यहाँ बता रहे हैं; अतः उनकी विवक्षा को समझने से विरोध नहीं लगेगा। अप्रमादी पापों से छूटते हैं -
सर्वत्र प्राप्यते पापैः प्रमाद निलयीकृतः।
प्रमाददोषनिर्मुक्तः सर्वत्रापि हि मुच्यते ।।२७६।। अन्वय :- प्रमाद-निलयीकृतः सर्वत्र पापैः प्राप्यते । हि प्रमाद-दोष-निर्मुक्त: सर्वत्र अपि
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