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योगसार-प्राभृत करते हैं, विद्वानों ने उसी वंदना को उत्तम वंदना कहा है। (यहाँ वन्दना का अर्थ शुद्धोपयोगरूप पर्याय द्वारा शुद्धात्मस्वभाव में लीनता ही है।) ___भावार्थ :- सरलार्थ में प्रथम अर्थ पर्याय की मुख्यता से है और दूसरा अर्थ द्रव्य की मुख्यता से है। यह वन्दनारूप आवश्यक कार्य मुनिराज के जीवन में प्रमत्तविरत गुणस्थान में शुभोपयोगी मुनिराज को ही होता है। अर्थात् शुद्धोपयोगरूप अप्रमत्तविरत अवस्था से जो शुभोपयोग में आये हैं उन्हें होता है। जिसे शुद्धोपयोग के बिना ही जीवन में मात्र शुभभाव ही होता है, ऐसे मुनिराज को कोई भी आवश्यक नहीं होता। प्रतिक्रमण का स्वरूप -
कृतानां कर्मणां पूर्वं सर्वेषां पाकमीयुषाम् ।
आत्मीयत्व-परित्यागः प्रतिक्रमणमीर्यते ।।२४०।। अन्वय :- पूर्वं कृतानां पाकं ईयुषां (च) सर्वेषां कर्मणां आत्मीयत्व-परित्यागः प्रतिक्रमणं ईर्यते।
सरलार्थ :- पूर्व अर्थात् भूतकाल में स्वयं किये हुए (पुण्य-पापरूप भावकर्मों से प्राप्त) द्रव्यकर्मों के उदय से प्राप्त फल पुण्य-पापरूप भाव - इन सब द्रव्य-भावकों के सम्बन्ध में अपनेपन के सर्वथा त्याग को प्रतिक्रमण कहते हैं।
भावार्थ :- संक्षेप में कहना हो तो पिछले पाप से हटने को ही प्रतिक्रमण कहते हैं। प्रश्न :- आपने सरलार्थ में पुण्य के भी त्याग की बात क्यों कही?
उत्तर :- अध्यात्म-शास्त्र में पुण्य-पाप दोनों को समान ही माना जाता है; क्योंकि दोनों कर्म बंधनरूप हैं। दूसरी बात यह भी हमें समझना चाहिए कि पूर्वबद्ध कर्म के उदय से मिलनेवाला फल पुण्य-पाप दोनोंरूप ही होता है।
प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमण को समझने के लिये समयसार गाथा ३०६, ३०७ एवं उसकी टीका तथा वहीं आये हुए कलशों का अध्ययन अवश्य करें। नियमसार के परमार्थ प्रतिक्रमण अधिकार का अध्ययन भी उपयोगी होगा। प्रत्याख्यान का स्वरूप -
आगाम्यागो निमित्तानां भावानां प्रतिषेधनम् ।
प्रत्याख्यानं समादिष्टं विविक्तात्म-विलोकिनः ।।२४१।। अन्वय :- विविक्त-आत्म-विलोकिनः आगाम्यागः निमित्तानां भावानां प्रतिषेधनं प्रत्याख्यानं समादिष्टं।
सरलार्थ :- शुद्धात्मा के अनुभवी जीव भविष्यकाल में उत्पन्न होनेवाले पुण्य-पापरूप द्रव्य
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