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संवर अधिकार
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जं मया दिस्सदे रूवं तं ण जाणादि सव्वहा।
जाणगं दिस्सदे व तम्हा जंपेमि केण हं।। गाथार्थ :- जिस रूप को मैं देखता हूँ, वह रूप मूर्तिक वस्तु जड़ है, अचेतन है, किसी भी तरह से कुछ भी जानता नहीं है और जो वह ज्ञायक है, अमूर्तिक है, वह किसी को दिखाई नहीं देता; इसलिए मैं किससे बोलूँ?
यही भाव पूज्यपाद आचार्य के समाधिशतक श्लोक १८ में भी आया है। अपकार और उपकार करने की भावना व्यर्थ -
स्वदेहोऽपि न मे यस्य निग्रहानुग्रहे क्षमः।
निग्रहानुग्रहौ तस्य कुर्वन्त्यन्ये वृथा मतिः ।।२०५।। अन्वय :- मे स्वदेहः अपि यस्य (मम आत्मनः) निग्रह-अनुग्रहे क्षमः न तस्य निग्रहअनुग्रहौ अन्ये कुर्वन्ति (इति) मति: वृथा।
सरलार्थ :- जहाँ मेरा शरीर भी मुझ आत्मा पर अपकार-उपकार करने में समर्थ नहीं है, वहाँ अन्य कोई जीव अथवा पुद्गल द्रव्य मुझ आत्मा पर अपकार अथवा उपकार करते हैं, यह मान्यता सर्वथा व्यर्थ/असत्य है।
भावार्थ :- संसारी जीव को अत्यन्त समीप का कोई साथी/संबंधी हो तो वह शरीर ही है; क्योंकि जिस आकाश-क्षेत्र में जीव विद्यमान है उसी आकाश-क्षेत्र में उसका शरीर भी विद्यमान है। इससे अधिक समीपता कैसी और कौन-सी हो सकती है? इतना सब कुछ होने पर भी किसी का भी समर्थ-असमर्थ शरीर, धर्म या पुण्य करने में मदद करता हो, अथवा धर्म या पुण्य में बाधा डालता हो, ऐसा नहीं है।
यदि अनुकूल शरीर धर्म अथवा पुण्य में उपयोगी होता तो देव के अथवा मनुष्य के समर्थ शरीर से धर्म अथवा पुण्य ही होना चाहिए; लेकिन ऐसा देखने में नहीं आता है। ___ यदि प्रतिकूल शरीर भी बाधक हो तो नारकी तथा तिर्यंच को धर्म व पुण्य होना ही नहीं चाहिए; तथापि अनेक नारकी एवं तिर्यंच जीव भी धर्म एवं पुण्य करते हुए देखे जाते हैं। इससे यह निर्णय हमें सहज और स्पष्टरूप से होना चाहिए कि कोई किसी का उपकार अथवा अपकार कर ही नहीं सकता। इसलिए उपकार-अपकार के विकल्प में उलझना समझदारी का कार्य नहीं है। अपना आत्मकल्याण मुख्य रखने से ही आत्म-कल्याण होता है, अन्यथा नहीं। कोई किसी के गुणों को करने-हरने में समर्थ नहीं -
शक्यन्ते न गुणा: कर्तुं हर्तुमन्येन मे यतः। कर्तुं हर्तुं परस्यापि न पार्यन्ते गुणा मया ।।२०६।। मयान्यस्य ममान्येन क्रियतेऽक्रियते गुणः । मिथ्यैषा कल्पना सर्वा क्रियते मोहिभिस्ततः ।।२०७।।
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