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________________ जीव अधिकार दर्शनमिति' - साकार ज्ञानोपयोग और निराकार दर्शनोपयोग है' - ऐसा कहा है। पदार्थों का भेद किये बिना सत्तामात्र का जो सामान्य प्रतिभास होता है, वह दर्शनोपयोग है। अल्पज्ञ जीवों को ज्ञानोपयोग से पूर्व दर्शनोपयोग होता है और सर्वज्ञ को ज्ञान-दर्शन दोनों उपयोग एक साथ वर्तते हैं। ज्ञान के भेद एवं उसका लक्षण - मति: श्रुतावधी ज्ञाने मन:पर्यय-केवले। सज्ज्ञानं पंचधावाचि विशेषाकारवेदनम् ।।८।। मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान-विभङ्गज्ञान-भेदतः। मिथ्याज्ञानं विधेत्येवमष्टधा ज्ञानमुच्यते ।।९।। अन्वय :- ज्ञाने सत्-ज्ञानं मतिः श्रुतावधी मन:पर्यय-केवले पञ्चधा अवाचि। (तत् ज्ञानं) विशेषाकारवेदनं (अस्ति)। मिथ्याज्ञानं मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान-विभङ्गज्ञान-भेदतः त्रिधा (भवति )। इति एवं ज्ञानं अष्टधा उच्यते। ___ सरलार्थ :- ज्ञानोपयोग में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान यह पांच प्रकार का ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहा गया है और यह ज्ञान विशेषाकार वेदनरूप है। ___मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभङ्गज्ञान के भेद से मिथ्याज्ञान तीन प्रकार का है। इसतरह ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का कहा जाता है। भावार्थ:- वस्तुतः ज्ञान सम्यक् अथवा मिथ्या नहीं होता । ज्ञान तो ज्ञान होता है, वह जानने का काम करता है । श्रद्धा की विपरीतता-अविपरीतता से ज्ञान को मिथ्या अथवा सम्यक् कहा जाता है। जीव के अनंत गुणों में एक ज्ञान गुण ही ऐसा है, जो धर्म प्रगट करने में पुरुषार्थ के लिये उपयोगी होता है। मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भी स्वयं अपने में पवित्र/निर्मल होता है । इसके आधार से ही अनादि मिथ्यादृष्टि धर्म-मार्ग का पुरुषार्थ कर सकता है। मिथ्यात्व अवस्था में व्यक्त क्षायोपशमिक ज्ञान के आधार से जिनवाणी का मर्म समझकर मिथ्यात्व को सूक्ष्म (मन्द) वा शिथिल करना तथा नष्ट करना सभव है। धवला शास्त्र में मिथ्यादृष्टि के ज्ञान को भी मगल कहा है। (धवला पु. १ पृ. ३६) इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है । मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ का अवलम्बन लेकर अर्थात् मतिज्ञानपूर्वक जो अन्य पदार्थों का ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है । द्रव्यक्षेत्र-काल और भाव की मर्यादा लिये हए इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना जो रूपी पदार्थ का ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लिये हुए जो इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना दूसरे के मन की अवस्थाओं का ज्ञान (रूपी पदार्थ संबंधी) होता है, वह मन:पर्ययज्ञान है तथा जो त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत् जानता है, वह केवलज्ञान है। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/21]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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