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बन्ध अधिकार
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हुआ भी धूलि से धूसरित नहीं होता, उसीप्रकार राग-द्वेष से रहित जीव कर्म-क्षेत्र में उपस्थित होकर अनेक प्रकार की कायचेष्टादि क्रिया करता हुआ भी कर्म से लिप्त नहीं होता।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार के बन्धाधिकार में इस विषय का जो कथन २४२ से २४६ पाँच गाथाओं में स्पष्ट किया है, उस सबका सार यहाँ इन दो पद्यों में समेट लिया गया है। इस विषय की विशेष जानकारी के लिये समयसार की उक्त गाथाएँ एवं उनकी टीका तथा कलश, भावार्थ सहित जरूर देखें। कर्मबन्ध का कारण कषायों से आकुलित चित्त -
सर्वव्यापारहीनोऽपि कर्ममध्ये व्यवस्थितः। रेणुभिर्व्याप्यते चित्रैः स्नेहाभ्यक्ततनुर्यथा ।।१५६।। समस्तारम्भ-हीनोऽपि कर्ममध्ये व्यवस्थितः।
कषायाकुलितस्वान्तो व्याप्यते दुरितैस्तथा ।।१५७।। अन्वय :- यथा स्नेह-अभ्यक्त-तनुः (पुरुषः) कर्ममध्ये व्यवस्थित: सर्वव्यापारहीन: अपि चित्रैः रेणुभिः व्याप्यते। __ तथा कषाय-आकुलित-स्वान्तः कर्ममध्ये व्यवस्थितः समस्त-आरम्भ-हीन: अपि दुरितैः व्याप्यते।
सरलार्थ : - जिसप्रकार शरीर में तेलादि की मालिश किया हुआ पुरुष धूलि से व्याप्त कर्मक्षेत्र में बैठा हुआ समस्त व्यापार से हीन होता हुआ अर्थात् कर्मक्षेत्र में स्वयं कुछ काम न करता हुआ भी नाना प्रकार की धूलि से व्याप्त होता है।
उसीप्रकार जिसका चित्त क्रोधादि कषायों से आकुलित है, वह कर्म के मध्य में स्थित हुआ समस्त आरम्भों से रहित होने पर भी कर्मों से व्याप्त/लिप्त होता है।
भावार्थ :- पूर्व में जो यह बतलाया है कि राग और द्वेष से युक्त हुआ जीव कर्म का बन्ध करता है; उसे यहाँ तेल की मालिश किये हुए सचिक्कन देहधारी मनुष्य के दृष्टान्त से स्पष्ट किया गया है। जिसप्रकार तेल से लिप्त शरीर का धारक मनष्य धलिबहल कर्मक्षेत्र में बैठा हुआ स्वयं सब प्रकार की कायादि चेष्टाओं से रहित होता हुआ भी धूलि से धूसरित होता है। उसीप्रकार कर्मक्षेत्र में उपस्थित हुए जिस जीव का चित्त कषाय से अभिभूत है/रागादिरूप परिणत है, वह सब प्रकार के आरम्भों से रहित होने पर भी कर्मों से बन्ध को प्राप्त होता है । इस रागादिरूप कषाय भाव में ही वह चिकनापन है जो कुछ न करते हुए भी कर्म को अपने से चिपकाता है। इसीलिए बन्ध का स्वरूप बतलाते हुए अधिकार के प्रारम्भ में ही उसका प्रधान कारण कषाय तथा योग बतलाया है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार के बन्धाधिकार के प्रारम्भ में इस विषय का जो कथन गाथा २३७ से २४१ में किया है, उसी का यहाँ उक्त दो श्लोकों में सार भरा है।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/115]