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________________ अपने-अपने भाग्य का खेल 9 दो अपने-अपने भाग्य का खेल ज्ञानेश और धनेश एक ही मुहल्ले के रहनेवाले थे। एक ही साथ खेले और मैट्रिक तक एक ही स्कूल में साथ-साथ पढ़े थे। बचपन में दोनों की दाँत-काटी रोटी थी। दोनों एक-दूसरे के लिए अपनी जान देते थे और एक-दूसरे का वियोग दोनों को बर्दाश्त नहीं था। पर न जाने क्यों ? किशोरवय में कदम रखते-रखते दोनों की विचारधाराओं में पूरव-पश्चिम जैसा महान् अन्तर आ गया । इसे भी अपने-अपने भाग्य का खेल ही समझना चाहिए। ज्ञानेश ने तो ग्रेजुएशन के बाद पढ़ना ही छोड़ दिया और धनेश टेक्नीकल ऐजूकेशन में चला गया। धनेश ने कॉलेज में एम.बी.ए. की पढ़ाई तो पूरी कर ली; पर दुर्भाग्य से वह धीरे-धीरे भौतिकता की चकाचौंध में अधिक उलझ गया। इसकारण अब उसे धनार्जन करने के लिए चौबीस घंटे भी कम पड़ने लगे। बिड़ला और बजाज जैसे बड़ेबड़े उद्योगपतियों की होड़ में अनेक फैक्ट्रियाँ तो डाल ही लीं, कई कम्पनियाँ भी खोल लीं। साथ ही पुण्ययोग से पिता के पारम्परिक विजनेस शेयर मार्केट में भी टॉप पर पहुँच गया। जब पुण्य का सूरज उगता है तो व्यक्ति उगते हुए सूर्य की भाँति चारों ओर से ऊपर उठता जाता है, किन्तु उसे उस समय यह भान नहीं रहता कि जिसतरह दिन के पूर्वार्द्ध में निरन्तर ऊँचे को चढ़नेवाला सूर्य दिन के उत्तरार्द्ध में उसी तेजी से नीचे भी जाता है। उसी तरह जीवन के पूर्वार्द्ध में जो पुण्योदय का सूरज ऊपर चढ़ रहा था, जीवन के उत्तर्रार्द्ध में पापोदय में परिवर्तित होकर नीचे की ओर आने वाला है; क्योंकि किसी के भी सभी दिन एक जैसे नहीं रहते । कहा भी है - 'सबै दिन जात न एक समान' देखो, सिद्धान्तों से कभी सौदा-समझौता नहीं करना चाहिए; क्योंकि धर्म परम्परा नहीं, प्रयोग है, कुलाचार नहीं, स्वपरीक्षित साधना है। पूर्व संस्कारों से यह बात ज्ञानेश के रोम-रोम में समाई थी। इसी कारण ज्ञानेश भौतिक वातावरण से भी अप्रभावित रहा और अपने पिता के कुलधर्म एवं लोक प्रचलित रूढ़िवादी परम्पराओं के प्रभाव से भी अछूता रहा। धर्म के विषय में भी वह पिता की परम्परागत लीक छोड़कर निष्पक्ष होकर निरन्तर धर्म के यथार्थ स्वरूप की गहराई तक पहुँचने के प्रयास में लगा रहा। ज्ञानेश के पिता धर्मेन्द्र पुरातन पन्थी थे, परम्पराओं की लीक पर चलने में ही उनका विश्वास था। पिता के पुरातनपन्थी, परम्पराओं की लीक पर चलने सम्बन्धी विचारों के संदर्भ में ज्ञानेश का यह कहना था कि - "धार्मिक नियमों का दृढ़ता से निर्वाह करना बहुत अच्छी बात है। सैद्धान्तिक कट्टरता भी बुरी बात नहीं है; परन्तु वह कट्टरता सुपरीक्षित एवं सुविचारित होनी चाहिए। बिना परीक्षा किये, बिना विचार किये किसी भी कुल परिपाटी को धर्म मानकर उसी लीक पर चल पड़ना और उससे टस से मस न होना - यह कोई धर्म का मार्ग नहीं है। __पर ऐसे कट्टरपंथियों को कैसे समझाये, जो किसी की कुछ सुनना ही नहीं चाहते, अपनी लीक से हटना ही नहीं चाहते?"
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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