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ये तो सोचा ही नहीं
जब ज्ञानेश ने चौबीसों घण्टे हो रहे आर्त-रौद्र परिणामों का लेखाजोखा प्रस्तुत किया तो अधिकांश लोगों के तो रोंगटे खड़े हो गये। एक ने कहा - "हमने ये तो यह सोचा ही नहीं कि न्यूजपेपर पढ़ने में भी पाप होता है, रोने-बिलखने में, प्रलाप करने में भी कोई पाप होता है। यह तो अब पता चला कि इस तरह विषयों में आनन्द मानने या रोने-धोने, हर्ष-विषाद करने से जो परिणाम संक्लेशमय होते हैं, वही परिग्रहानन्दी या विषयानन्दी रौद्रध्यान है, जिसका फल दुःख है।
दूसरा बोला - “अब क्या करें ? कैसे बचें इन पाप भावों से? अबतक पता नहीं था, सो अनजाने में जो हुआ वह तो ठीक पर अब तो जानबूझकर मक्खी नहीं निगली जा सकती।”
वैसे तो थोड़े-बहुत सभी प्रभावित थे; पर उद्योगपति सेठ लक्ष्मीलाल, भूतपूर्व जागीरदार मोहन, पढ़ा-लिखा एम. बी. ए. धनेश और ब्रह्मचारी लोभानन्द विशेष प्रभाव में थे। आज वे सात बजे के बजाय पौने सात बजे ही ज्ञानगोष्ठी के कार्यक्रम में आ बैठे थे। सभी मौन और चिंतन की मुद्रा में बैठे थे। ऐसा लगता था, मानो ये लोग कल के रौद्रध्यान पर हुए प्रवचन से आतंकित होकर सोच रहे हैं कि गुरुजी के बताये अनुसार तो हममें ऐसा एक भी नहीं है, जिसे किसी न किसी रूप में यह खोटा रौद्रध्यान न होता हो ।
कुछ उद्योग-धंधों से जुड़े हैं, तो कुछ मनोरंजन से जुड़े हैं। ऐसे भी बहुत हैं जो अपनी आदतों से मजबूर होकर बिना प्रयोजन ही रौद्रध्यान करते हैं।
सेठ लक्ष्मीलाल गोष्ठी में चिंतन म्रुदा में बैठे-बैठे कल के प्रवचन के बारे में सोच रहे थे - "ज्ञानेश ने मेरी तो आँखे ही खोल दी हैं। मैं तो ऐसा विषयान्ध रहा हूँ कि भोगोपभोग सामग्री को अर्जित करने और उसका उपभोग करने के सिवाय मुझे और कुछ दीखता ही नहीं था ।
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बहुत सा पाप पाप सा ही नहीं लगता
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दिन-रात इसी एक ही उधेड़बुन में लगा रहा कि न्याय-अन्याय से, झूठ-सच बोलकर जैसे भी संभव हो, अधिक से अधिक धन संग्रह करना और यश कमाने व सुख-सुविधायें जुटाने में खर्च करना। इसके लिए तस्करी करनी पड़ी तो उसमें भी मैं पीछे नहीं रहा । हिंसा का सहारा भी मैंने लिया ।
इसप्रकार मैंने तो सबसे अधिक पाँचों पापों में आनन्द मानने रूप हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी एवं परिग्रहानन्दी रौद्रध्यान ही किया है । अब मेरा क्या होगा ? कैसे छुटकारा मिलेगा इन पापों से ?"
इसी बीच ज्ञानेश ने सेठ लक्ष्मीलाल का ध्यान भंग करते हुए कहा - "कहो सेठ ! क्या सोच रहे हो ? कल की बात समझ में आई।"
सेठ लक्ष्मीलाल ज्ञानेश के मुख से अपना नाम सुनकर पहले तो सकपका गया फिर माथे का पसींना पोंछते हुए हाथ जोड़कर बोला - "गुरुजी ! आप बिल्कुल सत्य फरमाते हैं। मैं बैठा-बैठा यही सोच रहा था। आप तो ब्रह्मज्ञानी से लगते हैं। आपने मेरे मनोगत भावों को कैसे पहचान लिया ? कल के प्रवचन में तो आपने मेरे ही सारे पापों को हथैली पर रखे आँवले की भाँति उजागर करके मेरे ऊपर बड़ा उपकार किया है। मुझे ऐसा लग रहा था मानो मेरे लिए ही आपका पूरा प्रवचन हो रहा हो। अब आप मुझे इनसे बचने का भी कोई उपाय अवश्य बताइए। इसके लिए मैं आपका चिर-ऋणी रहूँगा।"
सेठ लक्ष्मीलाल की बात सुनकर मोहन में भी हिम्मत आ गई थी । उसने सोचा - “मैं भी क्यों न अपनी भूल को मेटने के लिए, अपने पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए ज्ञानेश के सामने अपने पेट का पाप कहकर हल्का हो जाऊँ? क्यों न अपने मन का बोझ कम कर लूँ?
अबतक जो भाव हुए हैं, सो तो हुए ही हैं। इन्हें छिपाये रखने का