________________
किसने देखे नरक
१०४
ये तो सोचा ही नहीं कराये जाते हैं, होटलों में हजार-हजार रुपया रोज के कमरे बुक कराते हैं; तो हमारी समझ में यह बात क्यों नही आती कि इस जन्म से अगले जन्मों की अनन्तकालीन लम्बी यात्रा करने के लिए भी कहीं/कोई रिजर्वेशन की जरूरत है ? जिसका रिजर्वेशन इस धूल-मिट्टी के धन से नहीं, बल्कि धर्म के धन से होता है, पुण्यबंध के हेतुभूत शुभभावों से होता है।
अरे भाई ! साठ-सत्तर साल के इस मानवजीवन को सुखी बनाने के लिए जब लम्बी-लम्बी सात-सात पीढ़ियों के लिए प्लानिंग करते हैं। स्थायी आमदनी रायल्टी सिस्टम के नये-नये बिजनिस करने की योजनायें बनाते हैं तो उसकी तुलना में अनन्त काल के भावी जीवन की लम्बी यात्रा के बारे में हम क्यों नहीं सोचते कि उसको सुखमय बनाने के लिए हम क्या करें ? क्या कर रहे हैं ? इसका भी लेखाजोखा कभी किया है हमने? यदि इस जन्म की व्यवस्था जुटाने से ही फुरसत नहीं मिली है तो आगे की सोचो कैसे ? अतः दोनों जन्मों की प्लानिंग हमें एकसाथ ही करना है।
भविष्य को सुखमय बनाने की बात तो बहुत दूर की है, अभी तो वर्तमान के सुखाभास के चक्कर में ही हम आर्त-रौद्रध्यान रूप खोटा ध्यान करके अपने भविष्य को अंधकूप में धकेलने का ही काम कर रहे। यह बात गंभीरता से विचारणीय है।
ज्ञानेश ने अपने भाषण में मानव-जन्म की दुर्लभता पर प्रकाश डालते हुए इस दुर्लभ मानव जीवन एवं सबप्रकार के अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों का आत्मकल्याण में सदुपयोग करने की प्रेरणा कुछ इस ढंग से दी कि सभी को यह अहसास होने लगा कि सचमुच अपने शेष जीवन का एक क्षण भी अब राग-रंग में, विषय-कषाय में एवं इन्द्रियों के भोगों में खोना मानो अनन्त काल के लिए अनन्त दु:खों को आमंत्रण
देना है। यदि यह अवसर चूक गये तो....।
अतः अब एक क्षण भी इन विषय-कषायों व राग-द्वेष में बर्बाद करना उचित नहीं है।
देखो, धन कमाते-कमाते, धन का विविध भोगों के माध्यम से उपयोग करते-करते यदि जिन्दगी बीत जायेगी तो पुन: यह अवसर नहीं आयेगा; क्योंकि यह विषयानन्दी पापमय रौद्रध्यान है, जिसके फल में हमें नरकों में अनन्त दुःख भोगने होंगे।
जो धर्मशास्त्रों के स्वाध्याय को अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लेते हैं, वे आत्मज्ञान के बल से धीरे-धीरे अपनी इच्छाओं को जीत लेते हैं; इसकारण उनको विषयों की इच्छा व्यर्थ लगने लगती है। वे पुण्योदय से प्राप्त न्यायोपात्त सामग्री में ही संतुष्ट रहते हैं। ऐसे संतुष्ट प्राणियों के पास पुण्य के फल में सुख के बाह्य साधनों की भी कमी नहीं रहती। इसकारण वे व्यक्ति सब तरह से सुखी रहते हैं।"
ज्ञानेश ने आगे कहा - "अरे ! जिस धन के लिए हम ऐसे पागल हो रहे हैं, वह धन तो धर्मात्माओं के चरण चूमता हुआ चला आता है
और धर्मात्मा उसकी ओर देखते तक नहीं हैं। क्या देखें उसे ? है क्या उसमें देखने लायक ? अत: अर्थशास्त्र के साथ-साथ धर्मशास्त्र का भी गहन अध्ययन किया जाये तो निश्चित ही सन्मार्ग मिलना सुलभ हो
सकता है।"
ज्ञानेश ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा - "जिन भावों में हम दिन-रात मग्न हैं, उन आर्त-रौद्ररूप खोटे-पापमय भावों का फल तिर्यंच और नरक गति है।"
सेठ लक्ष्मीलाल ने ऐसी बातें तो कभी सुनी ही नहीं थीं। वह तो दिन-रात धन कमाने की धुन में माथा धुनता रहता था। साधनों की पवित्रता की परवाह किए बिना ही पाँचों इन्द्रियों के विषयों में आनंद