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किसने देखे नरक
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की समस्या नहीं है। फिर तो फुर्सत ही है। समाज और राज-काज के काम तो शौक के हैं, करे न करे, क्या फर्क पड़ता है ? पर सेठ बिना विशेष आमंत्रण के नहीं आयेगा; अतः विशेष आमंत्रण तो भेजना ही होगा।"
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ये तो सोचा ही नहीं उसके लिए दुर्भाग्य बनकर, क्रूर काल बनकर उसे कब धर दबोचेगा - इसकी उसे कल्पना भी नहीं है। उसे नहीं मालूम कि यह परिग्रहानन्दी, विषयानन्दी रौद्रध्यान है, प्योर पाप का भाव है जिसका फल नरक है।
ज्ञानेश ने स्वयं भी सेठ को एक-दो बार स्वाध्याय करने और प्रवचनों में सम्मिलित होने की प्रेरणा दी और मौके-मौके पर आश्रम में पधार कर आध्यात्मिक ज्ञानार्जन करने का आग्रह भी किया;
ज्ञानेश के सत्संग से धीरे-धीरे सेठ के विचारों में परिवर्तन तो हो रहा था; परन्तु जिस गति से उम्र मौत की ओर ले जा रही थी, उस गति से बदलाव नहीं आ पा रहा थाः आये दिन राज-काज के काम और सामाजिक संस्थाओं की देखभाल । इन सबसे समय बचे तब स्वाध्याय की सूझेन?
ज्ञानेश ने कहा - "लक्ष्मी काका ! आपका परिचय और प्रेम ही तो हमें परेशान करता है और इसी कारण हम लोगों को आपसे बारम्बार यह कहने का विकल्प आता है कि आप स्वाध्याय किया करें, सेमीनारों में, शिविरों में आकर लाभ लिया करें; पर आप तो हमारी बात पर ध्यान ही नहीं देते।"
सेठ की बातों से ज्ञानेश उसके इस मनोविज्ञान को समझने लगा था कि इसे आदर-सन्मान चाहिए, आमंत्रण चाहिए। इसलिए जो उसको विशेष आयोजनों में आदरपूर्वक बुलाता है, वहाँ वह दौड़ा-दौड़ा चला जाता है। अत: उसने सोचा - “क्यों न सेठ को किसी शिक्षण-शिविर के उद्घाटन में मुख्य अतिथि बनाकर बुलाया जाये ? एकबार यहाँ आकर यहाँ का वातावरण देखेगा, वैराग्यवर्द्धक और दुःख निवारक प्रवचन सुनेगा, श्रोताओं की भीड़ देखेगा तो संभव है सेठ को स्वाध्याय करने की लगन लग जाये। कभी-कभी भीड़ से भी लोग प्रभावित होते हैं। एकबार तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की रुचि जाग्रत हो गई तो फिर फुर्सत
बड़ा सेठ, बड़ा विद्वान, बड़ा नेता या बड़ा अभिनेता - कोई भी बड़ा नामधारी व्यक्ति हो, यदि वह तत्त्वज्ञान विहीन हो तो उसे 'बड़प्पन' नाम की बीमारी हो ही जाती है। फिर वह छोटे छोटे प्रवचनकारों को तो गिनता ही नहीं है। इस कारण ऐसे बड़े लोगों का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह होता है कि उनके तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के अवसर दुर्लभ हो जाते हैं।
जबतक कोई किसी बड़े कार्यक्रम में अतिथि-विशेष बनाकर इन बड़े लोगों को न बुलाये, तब तक वे वहाँ जा नहीं सकते। बुलाये जाने पर पहँच जाने के बाद भी परे समय नहीं ठहरते। उन्हें लगता है - "अधिक देर तक रुकने से कहीं छोटा न समझ लिया जाऊँ।" यह सोचकर दूसरों को सुने बिना अपना भाषण देकर भाग जाते हैं; पर सेठ लक्ष्मीलाल तो ज्ञानेशजी को सुनने की भावना से ही आया था सो अंत तक बैठा रहा।
शिविर का उद्घाटन समारोह प्रारंभ हुआ। सेठ लक्ष्मीलाल मुख्य अतिथि के पद पर आसीन थे। शिक्षण-शिविरों की आवश्यकता एवं उपयोगिता पर बोलते हुए ज्ञानेश ने कहा - "देखो भाई ! जब कोई व्यक्ति दो-चार दिन की यात्रा पर घर से बाहर जाता है तो वह नाश्तापानी और पहनने-ओढ़ने के कपड़ों की व्यवस्था करके तो जाता ही है। कब, कहाँ ठहरना है, वहाँ क्या व्यवस्था होगी ? इसका भी पहले से ही पूरा सुनियोजन करता है।
जब ट्रेन में एक रात बिताने के लिए महीनों पहले से रिजर्वेशन