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पति के स्थान की पूर्ति संभव नहीं
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ये तो सोचा ही नहीं इस तरह ननद ने भी रूपश्री पर अत्याचार और करके दुर्व्यवहार से उसके वैधव्य के गहरे घावों पर नमक छिड़कने का ही काम किया। न केवल सताया ही, अमंगल के भय से घर से भी निकाल दिया। सब तरह से बे-सहारा रूपश्री बे-मौत मरने के बजाय माँ की शरण में चली गई।
'महिलाओं में इतनी अक्ल ही कहाँ होती है, इतनी दूरदर्शिता भी कहाँ होती है' - ऐसा कहकर सम्पूर्ण नारी जाति को अपमानित तो नहीं किया जाना चाहिए; पर अधिकांश महिलाओं की ऐसी मनोवैज्ञानिक स्थिति है कि उन्हें दूसरी महिलाओं का दुःख-दुःख-सा ही नहीं लगता। दूसरों पर क्या बीत रही है, इसका अहसास ही नहीं होता। 'वस्तुत: महिलायें ही महिलाओं की सबसे बड़ी शत्रु होती हैं' यदि यह कहा जाय तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी; परन्तु इस मनोवृत्ति में आमूलचूल परिवर्तन लाने की महती आवश्यकता है । अन्यथा नारी जाति इसीतरह अपमानित और प्रताड़ित होती रहेगी। जैसी कि दुर्घटना में रूपेश के दिवगंत हो जाने से उसके ससुराल वालों के द्वारा रूपश्री की दुर्दशा हुई।
पुरातन पन्थी नारियाँ अपने अन्धविश्वास के कारण अपनी ही नारी जाति की कितनी/कैसी वैरिन बन जाती हैं - कोई सोच भी नहीं सकता और अदूरदर्शी, अविवेकी पुरुष भी उनकी हाँ में हाँ मिलाकर उनका साथ देने में दो कदम आगे हो जाते हैं।
मांगलिक माने जाने वाले विवाह आदि के नेग-दस्तूरों में महिलायें ही विधवा नारी की परछाईं से परहेज करने लगती हैं। नन्हें-नन्हें बालकबालिकाओं को भी विधवा के पास नहीं फटकने देतीं।
नारियों की ऐसी दयनीय दुर्दशा देख, कामी पुरुषों की कुदृष्टि उन्हें शान्ति से जीने नहीं देती। दुर्दैव की मारी ऐसी नारियाँ शिकारियों के
शिकंजे से छूटी भयभीत मृगी की भाँति माँ की ममता को याद करके यदि पीहर के शरण में पहुँच जायें तो पीहर के लोग भी उन्हें अपने माथे का बोझ समझकर अपनी बला टालने के लिए उनका पुनर्विवाह करने की सोचने लगते हैं।
माँ में तो बेटियों के प्रति स्वाभाविक रूप से भी ममता होती है, यदि बेटी बाल-विधवा हो जाय तब तो माँ की ममता और उसके दु:ख के बारे में कहना ही दुष्कर है; परन्तु वह बेचारी अकेली कर भी क्या सकती है - जब भाई-भाभियाँ और पिता मिलकर एक मत हो जायें। ऐसी स्थिति में माँ को मौन रखने के सिवाय अन्य उपाय ही क्या है ? परिस्थितियों से समझौता कर माँ द्वारा कदाचित मजबूरी में पुनर्विवाह को मान्यता दे भी दी जाये तो भी बेचारी विधवा नारी की समस्या समाप्त नहीं होती; क्योंकि विधवा से कौन कुँवारा ब्याह करना चाहेगा। उसे तो कोई विधर ही अपना सकता है। कम उम्र के विधुर भी विधवा को सहज स्वीकार नही करते: क्योंकि जिन्हें एक से बढ़कर एक कुमारियाँ मिल सकती हैं, भला वह विधवा से शादी क्यों करेगा ? उसे यह भी आशंका बनी रहती है कि यदि इसके भाग्य में पति होता तो पहला ही क्यों मरता ? इस स्थिति में मैं अपनी जान को जोखिम में क्यों डालूँ ? ' इस आशंका से भी विधवाओं का योग्य व्यक्ति के साथ पुनर्विवाह होना अत्यन्त कठिन होता है। अतः इस दिशा में सोचना ही व्यर्थ है। ___ कुछ अदूरदर्शी लोग मिलकर उसे किसी अधेड़ या अधबूड़े विधुर के माथे मढ़कर बिना प्रसव पीड़ा सहे ही छोटी-सी उम्र में ही अनेक बेटे-बेटियों की माँ बना देने पर तुल जाते हैं जो किसी भी अपेक्षा उचित नहीं है।
ऐसा दुर्व्यवहार करते समय ऐसे दुष्ट प्रकृति के नर-नारी यह भूल जाते हैं कि काश ! यह दुर्घटना हमारे ऊपर अथवा हमारी प्राण प्यारी