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ये तो सोचा ही नहीं यदि वस्तुतः ईश्वर यह विश्व व्यवस्था अपने हाथ में ले लेता तो व्यवस्था इतनी सुन्दर होती कि किसी को कोई भी शिकायत नहीं रहती, परन्तु अफसोस तो यही है कि ऐसा नहीं हुआ। जिसका सारा विश्व साक्षी है। कहीं अतिवृष्टि, कहीं अनावृष्टि, कहीं भूचाल तो कहीं सुनामी सागर का प्रकोप, चोरी, गुण्डागर्दी, बलात्कार, रिश्वतखोरी, कोढ़, केंसर जैसी भयंकर बीमारियाँ क्या-क्या गिनायें - ये सब ईश्वर की कृतियाँ नहीं हो सकतीं। भला ऐसे भले-बुरे काम ईश्वर कैसे कर सकता है? और तुलसीदास तो यह लिखते हैं कि
कर्मप्रधान विश्वकरि राखा, जो जस करे सो तस फल चाखा
अर्थात् ईश्वर ने तो विश्व व्यवस्था को कर्म प्रधान कर रखा है, अत: जो व्यक्ति जैसे भले-बुरे कर्म करता है तदनुसार ही उसे फल की प्राप्ति होती है। ईश्वर स्वयं उसमें कुछ हस्तक्षेप नहीं करता। अब आप ही इसका समाधान बतायें।"
ज्ञानेश ने स्पष्ट किया - "सुनीता! मैं इस सम्बन्ध में स्वयं कुछ न कहकर हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध कवि और ईश्वर दर्शन के दार्शनिक विद्वान श्री माखनलाल चतुर्वेदी को प्रस्तुत करना चाहता हूँ। वे अपने आराध्य ईश्वर के सामने अपने पर हो रहे अन्याय से असन्तुष्ट होकर अपने दिल के दर्द को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि -
"तू ही क्या समदर्शी भगवान? क्या तू ही है अखिल जगत का न्यायाधीश महान ? क्या तू ही लिख गया 'वासना' दुनिया में है पाप ? फिसलन' पर तेरी आज्ञा से मिलता कुम्भीपाक? फिर क्या तेरा धाम स्वर्ग है जो तप बल से व्याप्त,
क्या तू ही देता है जग को सौदे में आनन्द ? १. निष्पक्ष वीतरागी, २. पाप प्रवृत्ति में पड़ने पर, ३. नरक, ४. समान
जो जस करे सो तस फल चाखा
क्या तुझसे ही पाते हैं मानव संकट दुःख और द्वन्द ? क्या तू ही है जो कहता है सब सम मेरे पास? किन्तु प्रार्थना की रिश्वत पर करता शत्रु विनाश । मेरा बैरी हो क्या उसका तू न रह गया नाथ ? मेरा रिपु क्या तेरा भी रिपु रे! समदर्शी नाथ ? क्या तू ही पतित अभागों पर शासन करता है ? क्या तू ही है सम्राट, लाज तज न्याय दण्ड धरता है? जो तू है तो मेरा माधव तू क्योंकर होवेगा? मेरा हरि तो पतितों को उठने को उंगली देगा, माखन पावे वृन्दावन में बैठा विश्व नचावे
वह मेरा गोपाल पतन से पहले पतित उठावे कवि कहता है कि मेरा तात्पर्य यह है कि - मैं तुझसे न्याय की क्या आशा करूँ ? तुझसे तो वह पुलिस का सिपाही ही अच्छा है। यद्यपि उसके पास ऐसी कोई कानूनी शक्ति नहीं है, जिससे वह आँखोंदेखी हत्या के अपराधी को भी मृत्युदण्ड दे सके या दिला सके; फिर भी दस-बीस हजार की बड़ी रकम रिश्वत में लेकर अपराधी को इतना दण्ड तो अप्रत्यक्षरूप से दे ही देता है। इस दण्ड से भी बहुत लोग अपराध करने से डरने लगते हैं; परंतु भगवान ! आपका तो हाल ही बेहाल है। यदि वही हत्यारा आपके पास आकर यह प्रार्थना करता कि - हे प्रभु! मुझसे जो हत्या का अपराध बन गया है, उससे मुझे न्यायालय में निश्चित ही प्राणदण्ड मिलेगा; परन्तु यदि आप चाहेंगे तो कोई मेरा बाल भी बांका नहीं कर सकता। अत: मैं आपकी शरण में आया हूँ
और आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे बचा लें, अन्यथा आपकी शरण में कोई क्यों आयेगा ? फिर आपको कोई प्रसाद भी नहीं चढ़ायेगा, पूजा भी नहीं करेगा।"