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________________ १०० यदिचूक गये तो शलाका पुरुष भाग-१से १०१ गुण नित्य हैं वैसे ही अनित्य नाम का धर्म भी नित्य है। जब तक ज्ञान-पर्याय ज्ञायकस्वभावी निज आत्मतत्त्व को स्पर्श नहीं करेगी, तबतक पर्याय में केवलज्ञान नहीं होगा। स्वभाव में तो सर्वज्ञत्वशक्ति पड़ी हुई है, लेकिन जब तक ज्ञान पर्याय उस स्वभाव का स्पर्श नहीं करेगी तबतक उसमें केवलज्ञान कहाँ से आयेगा? परमाणु की रचना षट्कोण होती है इसकारण जगह बिल्कुल भी खाली नहीं रहती है, बीच में जिसप्रकार परमाणु में छह तरफ से छह परमाणु चिपक सकते हैं; उसीप्रकार आत्मा के प्रदेशों में भी एक प्रदेश को छह प्रदेश घेरे हुए हैं। आत्मा के वे प्रदेश अनादिकाल से अनन्तकाल तक उसी स्थिति में रहेंगे, चाहे वे प्रदेश सम्पूर्ण लोकाकाश में फैल जायें या वे छोटे शरीर में आकर सिमट जायें। उपयोग की एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है और उपयोग स्वयं पर्याय है। यदि वह उपयोग (पर्याय) त्रिकालीध्रुव में अभेद रूप से एकाकार नहीं हो तो आत्मा का ध्यान नहीं होगा। उन दोनों के बीच में यदि थोड़ी भी सांध (गेप) रहेगी, तो आत्मा का निरन्तर ध्यान कैसे होगा? -- वस्तु द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावमय होती है। वस्तु में दो चीजें होती हैं। एक का नाम है विस्तारक्रम और दूसरी का नाम है प्रवाहक्रम । विस्तार क्रम क्षेत्र की अपेक्षा होता है और प्रवाहक्रम काल की अपेक्षा होता है। जब आत्मा के प्रदेश सम्पूर्ण लोक में फैल जाते हैं, तब भी आत्मा के प्रदेशों का क्रम वही रहता है। वह क्रम कभी बदला नहीं जा सकता है; इसे ही विस्तार क्रम कहते हैं। जिसप्रकार विस्तारक्रम में प्रदेशों के स्थान को बदला नहीं जा सकता है, उसीप्रकार प्रवाहक्रम में पर्याय को निश्चित समय से बदला नहीं जा सकता है। जिसप्रकार प्रदेशों का क्रम सुनिश्चित है; उसीप्रकार अनादिकाल से लेकर अनंतकाल तक जितने समय हैं, उनमें प्रत्येक द्रव्य की प्रत्येक पर्याय एक-एक समय में निश्चित है, न तो यह संभव है कि कल की पर्याय को आज ले आयें या आज की पर्याय को कल ले जायें। -- -- आत्मा के असंख्यात प्रदेशों को इसप्रकार फैला दें कि एक प्रदेश में दूसरा प्रदेश न रहे तो वे प्रदेश सम्पूर्ण लोक में फैल जाएँगे। केवली समुद्घात में जो लोक पूरणदशा होती है, उसमें लोकाकाश के एक-एक प्रदेश के ऊपर आत्मा का एक-एक प्रदेश रहता है अर्थात् जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं, उतने ही एक आत्मा के प्रदेश हैं; आत्मा लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेशी है। लोकाकाश में जो असंख्यात प्रदेश हैं अर्थात् तीनों लोक में जो ऊपर-नीचे, अगल-बगल में प्रदेश हैं, उन प्रदेशों का स्थान अनादिकाल से निश्चित है और अनन्तकाल तक रहेगा। एक भी प्रदेश एक इंच भी इधर-उधर नहीं हिलेगा तथा उन प्रदेशों के छहों द्रव्यों में किस-किस तरफ कौन-कौन से प्रदेश रहेंगे, यह भी निश्चित है। ___ आत्मा के प्रदेश (क्षेत्र) के पलटने से कोई बिगाड़-सुधार नहीं है। यदि माथे में स्थित आत्मा के प्रदेश पैर में चले जायें या पैर में स्थित प्रदेश माथे में आ जायें तो हमें कोई दुःख नहीं होता है; इसलिए प्रदेशों के कारण कोई बिगाड़-सुधार नहीं है। ___ हम अज्ञानवश पर में फेर-फार करने रूप कर्तृत्व को, धर्नाजन करने एवं कामभोग की क्रियाओं को पुरुषार्थ समझते हैं, जो नरक-निगोद में डालने वाले, संसार में घुमानेवाले हैं। वस्तुतः यह अन्यथा पुरुषार्थ है। असली पुरुषार्थ तो उस दिन प्रकट होगा जिस दिन हम यह स्वीकार करेंगे कि भगवान आत्मा काल से भी अखण्ड है अर्थात् पर्यायों में भी परिवर्तन नहीं किया जा सकता। (५१)
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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