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पण्डित टोडरमल स्मारक में होने वाले दैनिक प्रवचनों में मैं प्रारंभ से ही उपस्थित होता रहा हूँ और लगभग प्रत्येक प्रवचन के महत्वपूर्ण अंशों के नोट्स तैयार करता रहा हूँ, जिनसे मेरी भी अनेक डायरियाँ तैयार हो चुकीं हैं। और सपरिवार एवं परिचित लोगों के बीच में उन सूक्तियों पर चर्चा वार्ता करता रहता हूँ। विश्वविद्यालय की सेवा से निवृत्त होने के पश्चात् अनेक प्रलोभनों का संवरण करके मैं अपना पूरा समय इनके स्वाध्याय चिंतनमनन में ही करता हूँ तथा टेप प्रवचनों का अद्भुत आनन्द लेने का मेरा आठ-दस घन्टों का दैनिक कार्यक्रम रहता है। स्मारक के विद्वान एवं प्रथम सत्र से वर्तमान सत्र तक के विद्यार्थियों से मेरा सौहाद्र बना रहता है। मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ और जहाँ भी जाता हूँ स्मारक के वातावरण, कार्यकर्त्ताओं, प्राध्यापकों, संचालकों तथा छात्रों का गुणगान एवं हार्दिक प्रशंसा करने में मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ।
धर्मपत्नी शान्तिदेवी की आधि-व्याधि एवं उपाधि की विकट समस्याओं से निवारण करने का एकमात्र साधन उसका अध्ययन एवं महत्वपूर्ण अंशों का शताधिक डायरियों में संकलन करते रहना ही है। हम दोनों को ही नहीं वरन् हमारा यह प्रयास अन्य पाठकों को भी आत्माराधना सहायक बने, इस भावना से प्रथम कृति 'जिन खोजा तिन पाईंया' अप्रेल २००६ में प्रकाशित होकर जन-जन तक पहुँच चुकी हैं। उसी क्रम में यह द्वितीय कृति 'यदि चूक गये तो' पाठकों की सेवा में समर्पित है । आशा है पाठक इसे भी पूर्वकृति की तरह ही अपनायेंगे इसकी विषय वस्तु पूर्वकृति से भी अधिक उपयोगी है। इसी भावना से यह प्रस्तुति समर्पित है। - एम. पी. जैन, एम.ए., एल. एल. बी पूर्व अतिरिक्त कुलसचिव, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
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अन्तर्भावना
श्रीमती शान्तिदेवी जैन धर्मपत्नी श्री महावीर प्रसाद जैन, सेवा निवृत्त अतिरिक्त कुलसचिव राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर ने मेरी साहित्य सरिता में गहरे गोते लगाकर जो मणिमुक्ता खोजे हैं, यह उनकी गहरी लगन काही सुफल है।
गोते औरों ने भी लगाये होंगें; पर इसतरह गहरे गोते लगाना और साहित्य सरिता की सतह से शिक्षाप्रद सुभाषितों (सूक्तियों) रूप मणिमुक्ताओं का चयन करने का कार्य विरले ही करते हैं, कर पाते हैं।
यह काम श्रीमती शान्तिदेवी ने स्वान्तः सुखाय किया, एतदर्थ उनकी जितनी प्रशंसा की जाय कम ही होगी। उन्हें मेरा मंगल आशीर्वाद है। वे चिरंजीवी रहकर इसीतरह आजीवन जिनेन्द्र वचन रूप ज्ञानगंगा में अवगाहन करती रहें और रत्नत्रय के रत्न खोजत रहें, अपनी परिणति को निर्मल करतीं रहें, क्षयोपशमज्ञान में वृद्धि करतीं रहें।
आपके पति श्री एम.पी. जैन ने श्रीमती शान्ति देवी जैन द्वारा तैयार की गई डायरियों को न केवल पढ़ा, उनका सम्पादन भी किया; फिर भी उन्होंने मुझसे यह अपेक्षा की कि 'मैं भी उनके इस संकलन को देखूँ और यदि पाठकों के लिए उपयोगी लगे और प्रकाशन के योग्य समझें तो इसका प्रकाशन अवश्य किया जाय। इसके प्रकाशन से मुझे अति प्रसन्नता होगी।'
उनकी भावना को देखकर मेरी अन्तर्भावना हुई और उनके इस संकलन को भी मैंने आद्योपान्त पढ़ा और मुझे ऐसा लगा कि यह अमूल्य दुर्लभ मानव जीवन पाकर यदि हम लौकिक कार्यों में उलझे रहकर अपना आत्म कल्याण करने से चूक गये तो पता नहीं चौरासी लाख योनियों में कहाँ जा
पड़ेंगे। अतः यह अवसर चूकने से हमारी जो हानि होगी, उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। यह सोचकर ही मैंने इस कृति का नाम “यदि