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यदि चूक गये तो द्रव्य की सत्ता स्वयं से है, उसे किसी ने बनाया नहीं और न कोई उसे मिटा सकता है; क्योंकि वह अनादि-अनन्त है।
इसी अस्तित्वगुण की अपेक्षा से ही तो द्रव्य का लक्षण सत्या जाता है। देखो! सत् का कभी विनाश नहीं होता और असत् का कभी उत्पाद नहीं होता। मात्रपर्याय पलटती है।
इस अस्तित्व गुण के यथार्थ ज्ञान - श्रद्धान से जीव मृत्युभय से तो मुक्त हो ही जाता है, कर्ताबुद्धि के अगणित दोषों से भी बच जाता है।
जिस शक्ति के कारण द्रव्य में अर्थ क्रिया हो, प्रयोजनभूत क्रिया हो; उसे वस्तुत्वगुण कहते हैं। इस गुण की मुख्यता से ही द्रव्य को वस्तु कहते हैं। लोक में प्रत्येक वस्तु अपने-अपने प्रयोजन से युक्त है। कोई भी वस्तु अपने आप में निरर्थक नहीं है और पर के किसी भी प्रयोजन की नहीं है। एक वस्तु को दूसरी वस्तु के सहयोग की आवश्यकता नहीं; क्योंकि सभी वस्तुओं में अपना-अपना स्वतंत्र वस्तुत्व गुण विद्यमान है।
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द्रव्यत्व गुण - जिसशक्ति के कारण द्रव्य की अवस्था निरन्तर बदलती रहे, वह द्रव्यत्व गुण हैं। इसी की मुख्यता से वस्तुओं को द्रव्य संज्ञा प्राप्त है। इस गुण की प्रमुख विशेषता यह है कि परद्रव्य के सहयोग की अपेक्षा बिना ही यह गुण वस्तु को स्वतंत्र रूप से निरन्तर परिणमनशील रखता है। अतः एक द्रव्य में होने वाले सतत् परिवर्तन का कारण कोई अन्य द्रव्य नहीं है। किसी भी द्रव्य को अपने परिणमन में किसी अन्य द्रव्य या गुण की आवश्यकता नहीं है ।
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प्रमेयत्वगुण - जिस शक्ति के कारण द्रव्य किसी न किसी ज्ञान का विषय बने, उसे प्रमेयत्व गुण कहते हैं।
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हरिवंश कथा से
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आत्मा भी एक वस्तु है, उसमें भी प्रमेयत्व गुण है, अतः वह भी जाना जा सकता है। बस, थोड़ा-सा पर व पर्याय पर से उपयोग हटाकर आत्मा की ओर अन्तर्मुख करने की देर है कि समझ लो आत्मा का दर्शन हो गया, सम्यग्दर्शन हो गया।
आत्मा कितना ही सूक्ष्म क्यों न हो, उसमें प्रमेयत्व गुण है न ? जिसमें प्रमेयत्व गुण है, वह भले सूक्ष्म हो तो भी ज्ञान की पकड़ में आता ही है।
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अगुरुलघुत्व गुण - जिस शक्ति के कारण द्रव्य में द्रव्यपना कायम रहता है, एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप नहीं होता, एकगुण दूसरे गुणरूप नहीं होता और द्रव्य में रहने वाले अनन्त गुण बिखर कर अलग-अलग नहीं होते, उसे अगुरुलघुत्वगुण कहते हैं।
जिस शक्ति के कारण द्रव्य का कोई न कोई आकार अवश्य रहता है, उसे प्रदेशत्वगुण कहते हैं।
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काश । सब जीवों को इनका ऐसा यथार्थ ज्ञान हो जावे तो उनका अनन्त पराधीनता का दुःख दूर हुए बिना नहीं रहे। इसका सही ज्ञान होने पर हम परद्रव्यों के कर्तृत्व की चिन्ता से सदा के लिए मुक्त हो सकते हैं।
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यद्यपि अपने में ऐसी कोई योग्यता नहीं है कि पर में कुछ किया जा सके; परन्तु यदि किसी की भली होनहार हो तो निमित्त तो बन ही सकते हैं; अतः भूमिका के विकल्पानुसार प्रयत्न करने में हानि भी क्या है?
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कारक - कारक उसे कहते हैं जो प्रत्येक क्रिया के प्रति प्रयोजक हो, जो क्रिया निष्पत्ति में कार्यकारी हो, क्रिया का जनक हो; उसे कारक कहते हैं।