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यदिचूक गये तो भगवान नेमिनाथ एवं श्रीकृष्ण
जिनसेन रचित हरिवंश पुराण में हरिवंश की एक शाखा यादव कुल और उसमें उत्पन्न दो शलाका पुरुषों के चरित्र विशेष रूप से वर्णित हैं। इन शलाका पुरुषों में एक बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ और दूसरे नवें नारायण लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण हैं। नेमिकुमार ने अपने विवाह के अवसर पर प्रतिबंधित पशुओं की दीनदशा देख और उनका आक्रन्दन सुनकर संसार से विरक्त होकर परिणय से पूर्व ही सन्यास धारण कर मुक्ति का मार्ग अपना लिया और दूसरे लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने कौरव-पाण्डव युद्ध में अर्जुन का सारथी बनकर अपना बल कौशल तो दिखलाया ही, कालिया दमन तथा पर्वत को सिर पर उठा लेने अर्थात् पर्वत पर बसे लोगों को संकट से निकालने जैसे अनेक लोक कल्याण के कार्य भी किये।
एक ने आध्यात्मिक उत्कर्ष का मानदण्ड स्थापित किया और दूसरे ने गोवंश वृद्धि, भौतिक समृद्धि लोक मंगल के कार्यों से और लौकिकजनों को लीला के माध्यम से प्रसन्न रखते हुए जनहित के कार्य किये। एक ने जनजन को निवृत्ति का मार्ग दिखाया तो दूसरे ने नैतिक प्रवृत्ति का पथ प्रशस्त किया। एक ने स्वयं अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त कर जगत को आत्म साधना का मार्गदर्शन किया तो दूसरा जन मंगल में प्रवृत्त रहा।
श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन तथा जन्म और मृत्यु भी कर्मयोग का पाठ पढ़ाते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। उनके जीवन में जन्म से ही संघर्ष की शुरूआत हो गई, जन्म जेल में हुआ और मरण जंगल में। जन्म के समय कोई मंगल गीत गाने वाला नहीं मिला और मरण समय भी कोई पानी देने वाला नहीं था।
ये दोनों घटनायें हमें देश और राष्ट्रहित में संघर्ष करने की प्रेरणा देती है। जब नारायण जैसे शक्तिशाली और पुण्यवान जीव अपने जीवन-मरण और सुख-दुःख की परवाह किए बिना कर्मयोगी बनकर अपना जीवन जीते हैं तो हम अपने को उनका अनुयायी माननेवाले उन जैसे कर्मयोगी क्यों न बनें?
हरिवंश कथा से
यदि संसार के कामों में रुचि नहीं है तो उन्हीं के चचेरे भाई तीर्थंकर नेमिनाथ के आदर्शों का अनुकरण करके संसार से मुँह मोड़कर आत्मसाधना के अपूर्व पुरुषार्थ द्वारा पूर्णता प्राप्त कर मुक्ति के मार्ग की ओर अग्रसर हों, ज्ञानमार्ग की ओर अग्रसर हों और जगत को भी वही मार्गदर्शन करें। ___ जीवों के जब तक जैसे पुण्य का उदय होता है तब तक वैसे अनुकूल संयोगों का मिलना सहज में ही होता रहता है। __यद्यपि मार-पीट करना, किसी को भी मार डालना कोई अच्छी बात नहीं है; बहादुरी का काम नहीं किन्तु वह कायर भी नहीं। गृहस्थ आक्रमण करने वाले का बहादुरी से सामना करता है; क्योंकि वह विरोधी हिंसा का त्यागी नहीं होता; पर वह स्वयं पहले आगे आकर आक्रमण नहीं करता, क्योंकि आक्रान्ता तो महापापी भी है और शासन की दृष्टि में अपराधी भी है। विनोदप्रिय नारद -
नारद के विविध प्रकार के बदलते व्यक्तित्व से हम यह शिक्षा ले सकते हैं कि यदि कोई भोगों की तीव्रलिप्सा और क्रोधादि कषायों के आवेश से तथा अपने स्वार्थीपन से अब तक बड़े-बड़े पाप करके दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण करता रहा हो, फिर भी वह समय आने पर विरागी होकर अपने स्वरूप एवं संसार का स्वरूप और वस्तु व्यवस्था का सच्चा स्वरूप जानकर, उसमें श्रद्धा करके पापों से मुक्ति प्राप्त कर सच्चा सुख प्राप्त कर सकता है। महासती द्रौपदी___ जब अर्जुन द्वारा गाण्डीव चक्र को बेधने पर द्रौपदी ने उन्हें हृदय से अपना वर स्वीकार करके उनके गले में वरमाला डाली तो संयोग से वह वरमाला टूट गई और हवा के झोंके से माला के पुष्प पास में खड़े हुए पाँचों पाण्डवों के शरीर पर जा पड़े। बस इस घटना को लेकर किसी विवेकहीन चपल मनुष्य ने मजाक में यह जोर-जोर से कहना शुरू कर दिया कि - "द्रौपदी ने पाँचों राजकुमारों को वरा है।" जबकि वस्तुतः द्रौपदी ने अर्जुन
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