SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानी श्रावक के बारह व्रत श्री अमृतचन्द्राचार्य ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय नामक ग्रंथ में लिखा है - "आत्मा में रागादि दोषों का उत्पन्न होना ही हिंसा है तथा उनका उत्पन्न न होना ही अहिंसा है।" यदि कोई व्यक्ति राग-द्वेषादि भाव न करके, योग्यतम आचरण करे तथा सावधानी रखने पर भी यदि किसी जीव का घात हो जाये, तो वह हिंसा नहीं है। इसके विपरीत कोई जीव अन्तरंग में कषायभाव रखे तथा बाह्य में भी असावधान रहे, पर उसके निमित्त से किसी जीव का घात न भी हुआ हो तो भी वह हिंसक है। सारांश यह है कि हिंसा और अहिंसा का निर्णय प्राणी के मरने या न मरने से नहीं, रागादि भावों की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति से है। निमित्तभेद से हिंसा चार प्रकार की होती है :(१) संकल्पी हिंसा (२) उद्योगी हिंसा (३) आरम्भी हिंसा (४) विरोधी हिंसा केवल निर्दय परिणाम ही हेतु है जिसमें - ऐसे संकल्प (इरादा) पूर्वक किया गया प्राणघात ही संकल्पी हिंसा है। व्यापारादि कार्यों में तथा गृहस्थी के आरम्भादि कार्यों में सावधानी वर्तते हुए भी जो हिंसा हो जाती है, वह उद्योगी और आरम्भी हिंसा है। अपने तथा अपने परिवार, धर्मायतन आदि पर किए गये आक्रमण से रक्षा के लिए अनिच्छापूर्वक की गई हिंसा, विरोधी हिंसा है। व्रती श्रावक उक्त चार प्रकार की हिंसाओं में संकल्पी हिंसा का तो सर्वथा त्यागी होता है अर्थात् सहज रूप से उसके इसप्रकार के भाव ही उत्पन्न नहीं होते हैं। अन्य तीनों प्रकार की हिंसा से भी यथासाध्य बचने का प्रयत्न रखता है। हिंसा भाव का एकदेश त्याग होने से यह व्रत अहिंसाणुव्रत कहलाता है। २.सत्याणुव्रत -प्रमाद के योग से असत् वचन बोलना असत्य है, इसका एकदेश त्याग ही सत्याणुव्रत है। असत्य चार प्रकार का होता है : अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।।४४।। वीतराग-विज्ञान भाग -३ (१) सत् का अपलाप (२) असत् का उद्भावन (३) अन्यथा प्ररूपण (४) गर्हित वचन विद्यमान पदार्थ को अविद्यमान कहना, सत् का अपलाप है। अविद्यमान को विद्यमान कहना, असत् का उद्भावन है। कुछ का कुछ कहना अर्थात् वस्तु स्वरूप जैसे है वैसा न कहकर अन्यथा कहना, अन्यथा प्ररूपण है। जैसे- हिंसा में धर्म बताना। निंदनीय, कलहकारक, पीड़ाकारक, शास्त्रविरुद्ध, हिंसापोषक, परापवादकारक आदि वचनों को गर्हित वचन कहते हैं। ३. अचौर्याणुव्रत - जिस वस्तु में लेने-देने का व्यवहार है, ऐसी वस्तु को प्रमाद के योग से उसके स्वामी की अनुमति बिना ग्रहण करना चोरी है। ऐसी चोरी का त्याग अचौर्यव्रत है। चोरी का त्यागी होने पर भी गृहस्थ कूप, नदी आदि से जल एवं खान से मिट्टी आदि वस्तुओं को बिना पूछे भी ग्रहण कर लेता है, अत: एकदेश चोरी का त्यागी होने से अचौर्याणुव्रत कहलाता है। ४. ब्रह्मचर्याणुव्रत - पूर्णतया स्त्री-सेवन का त्याग ब्रह्मचर्यव्रत है। जो गृहस्थ इसे धारण करने में असमर्थ हैं, वे स्वस्त्री में संतोष करते हैं और परस्त्रीरमण के भाव को सर्वथा त्याग देते हैं, उनका यह व्रत एकदेशरूप होने से ब्रह्मचर्याणुव्रत कहलाता है। ५.परिग्रहपरिमाणव्रत - अपने से भिन्न पर-पदार्थों में ममत्वबुद्धि ही परिग्रह है। यह अन्तरंग और बहिरंग के भेद से दो प्रकार का होता है। मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ तथा हास्यादि नव नौकषाय - ये चौदह अंतरंग परिग्रह के भेद हैं। तथा जमीन-मकान, सोना-चाँदी, धन-धान्य, नौकर-नौकरानी, बर्तन आदि अन्य वस्तुयें बाह्य परिग्रह हैं। उक्त परिग्रहों में गृहस्थ के मिथ्यात्व नामक परिग्रह का तो पूर्ण रूप से त्याग हो जाता है तथा बाकी अंतरंग परिग्रहों का कषायांश के सद्भाव के कारण एकदेश त्याग होता है तथा वह बाह्य परिग्रह की सीमा निर्धारित कर लेता है। इस व्रत को परिग्रहपरिमाणव्रत कहते हैं।
SR No.008388
Book TitleVitrag Vigyana Pathmala 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size131 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy