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सात तत्त्व प्रवचनकार - संसार में समस्त प्राणी दुःखी दिखाई देते हैं, और वे दुःख से बचने का उपाय भी करते हैं; परन्तु प्रयोजनभूत तत्त्वों की सही जानकारी एवं श्रद्धा के बिना दुःख दूर होता नहीं।
मुमुक्षु - ये प्रयोजनभूत तत्त्व क्या हैं, जिनकी जानकारी और सही श्रद्धा के बिना दु:ख दूर नहीं हो सकता ?
प्रवचनकार - दु:ख दूर करना और सुखी होना ही सच्चा प्रयोजन है और ऐसे तत्त्व, जिनकी सम्यक् श्रद्धा और ज्ञान बिना हमारा दुःख दूर न हो सके और हम सुखी न हो सकें, उन्हें ही प्रयोजनभूत तत्त्व कहते हैं। तत्त्व माने वस्तु का सच्चा स्वरूप । जो वस्तु जैसी है, उसका जो भाव, वही तत्त्व है।
वे तत्त्व सात होते हैं, जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वामी ने कहा है -
"जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्" ।।१।।४।।
जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष - ये सात तत्त्व हैं।
प्रश्नकर्ता - कृपया संक्षेप में इनका स्वरूप बताइये।
प्रवचनकार - जीव तत्त्व ज्ञान-दर्शन-स्वभावी आत्मा को कहते हैं। ज्ञान-दर्शन स्वभाव से रहित तथा आत्मा से भिन्न समस्त द्रव्य (पदार्थ) अजीव तत्त्व कहलाते हैं। पुद्गलादि समस्त पदार्थ अजीव हैं।
इन शरीरादि सभी अजीव पदार्थों से भिन्न चेतन तत्त्व ही आत्मा है। वह आत्मा ही मैं हूँ, मुझसे भिन्न पुद्गलादि पाँच द्रव्य अजीव हैं।
सामान्य रूप से तो जीव अजीव दो ही तत्त्व हैं। आस्रवादिक तो जीव अजीव के ही विशेष हैं।
शंकाकार - यदि आस्रवादिक जीव अजीव के ही विशेष हैं तो इनको पृथक् क्यों कहा है ? प्रवचनकार - यहाँ तो मोक्ष का प्रयोजन है। अतः आस्रवादिक
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पाँच पर्यायरूप विशेष तत्त्व कहे। उक्त सातों के यथार्थ श्रद्धान बिना मोक्षमार्ग नहीं बन सकता है; क्योंकि जीव और अजीव को जाने बिना अपने-पराये का भेद-विज्ञान कैसे हो ? मोक्ष को पहिचाने बिना और हितरूप माने बिना उसका उपाय कैसे करे ? मोक्ष का उपाय संवरनिर्जरा हैं, अत: उनका जानना भी आवश्यक है तथा आस्रव का अभाव सो संवर है और बंध का एकदेश अभाव सो निर्जरा है; अत: इनको जाने बिना इनको छोड़ संवर-निर्जरारूप कैसे प्रवर्ते ?
शंकाकार - हमने तो प्रवचन में सुना था कि आत्मा तो त्रिकाल शुद्ध, शुद्धाशुद्ध पर्यायों से पृथक् है, वही आश्रय करने योग्य है।
प्रवचनकार - भाई, वह द्रव्यदृष्टि के विषय की बात है। आत्मद्रव्य प्रमाणदृष्टि से शुद्धाशुद्ध पर्यायों से युक्त है।
जिज्ञासु - यह द्रव्यदृष्टि क्या है ? प्रवचनकार - सप्त तत्त्वों को यथार्थ जानकर, समस्त पर-पदार्थ और शुभाशुभ आस्रवादिक विकारी भाव तथा संवरादिक अविकारी भावों से भी पृथक् ज्ञानानन्द-स्वभावी त्रिकाली ध्रुव आत्मतत्त्व ही दृष्टि का विषय है। इस दृष्टि से कथन में पर, विकार और भेद को भी गौण करके मात्र त्रैकालिक ज्ञान-स्वभाव को आत्मा कहा है और उसके आश्रय से ही धर्म (संवर निर्जरा) प्रकट होता है।
जिन मोह-राग-द्वेष भावों के निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्म आते हैं, उन मोह-राग-द्वेष भावों को तो भावास्रव कहते हैं। उसके निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्मों का स्वयं आना द्रव्यास्रव है।
इसीप्रकार आत्मा का अज्ञान, मोह-राग-द्वेष, पुण्य-पाप आदि विभाव भावों में रुक जाना सो भावबंध है और उसके निमित्त से पुद्गल का स्वयं कर्मरूप बंधना सो द्रव्य-बंध है।
शंकाकार - पुण्य-पाप को बंध के साथ क्यों जोड़ दिया ?
प्रवचनकार - भाई ! पुण्य और पाप, आस्रव-बंध के ही अवान्तर भेद हैं। शुभ राग से पुण्य का आस्रव और बंध होता है और अशुभ राग,
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