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________________ १२० विदाई की बेला/१६ १२१ कल्पना करो, कदाचित् मेरे भाई के संबंध में ही ऐसा कोई समाचार मिलता तो हम लोग दौड़े-दौड़े जाते या नहीं?" मैंने कहा - "महाभाग! जाते, अवश्य जाते, वहाँ नहीं जाते तो फिर रहते कहाँ! मुझे अभी इस घर में बहुत दिनों रहना है, अतः ऐसी गलती तो मैं कैसे कर सकता था?" वह बोली - "तुम तो सदा मुझसे ठिठोलियाँ ही करते रहते हो। अरे! मैं तो यह कह रही हैं कि गृहस्थ अवस्था में मेरे भाई जैसे सात व्यसनियों, अधर्मियों और पापियों के साथ भी तो व्यवहार निभाना पड़ता है, जिन्हें हम से मिलने का कोई हर्ष नहीं होता और जिनके हृदय में हमारे प्रति कोई आदर - सम्मान भी नहीं होता, फिर वे लोग तो हमारे साधर्मी ठहरे! साधर्मीजनों की खोज-खबर लेना एवं उनका तन-मन-धन से सहयोग करना तो हमारा परम कर्तव्य है। फिर वह तो हमारा शिष्य एवं अनन्य मित्र भी है। जब हम विवेकी से मिलेंगे तो उन्हें कितनी खुशी होगी। आधा दुःख तो उनका वैसे ही दूर हो जायेगा। अतः हमें आज ही चलने की तैयारी कर लेना चाहिए; ताकि उन्हें आपके सान्निध्य का लाभ अधिक से अधिक मिल सके।" दूसरे दिन जब हम वहाँ पहुँचे तो हमने देखा कि विवेकी एक बहुत ही छोटे अंधेरे कमरे में अकेला पड़ा है, शायद उस कमरे ने कभी सूर्य के प्रकाश के दर्शन तो किए ही नहीं थे। दिन के बारह बजे भी मोमबत्ती या बल्ब से ही एक-दूसरे का मुँह देखा जा सकता था। एक कोने में स्टूल पर पुराना पंखा रखा था जो केवल अपनी खड़खड़ की आवाज से अपने अस्तित्व का बोध करा रहा था। पास में एक चौकी पर पानी का लोटा-गिलास रखा था। बाहर दरवाजे पर एक बूढ़ा नौकर बैठा-बैठा सो रहा था, जो उनकी सेवा-सुश्रुषा के लिए होगा। पर वह शायद बहरा था, हमने बहुत आवाज लगाईं, पर उसके कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। विदाई की बेला/१६ संभवतः पानी का गिलास उठाने की कोशिश में गिलास हाथ से छूट कर टूट गया था, काँच के टुकड़े व पानी अभी भी वहाँ फैला पड़ा था। विवेकी जागते हुए भी सोया सा लग रहा था, मुँह पर मक्खियाँ भिन-भिना रही थीं। वह बिचारा पलक झपकाने और मुस्कुराने के सिवाय और कुछ नहीं कर पा रहा था। हमें देखकर उसकी मुस्कुराहट ने हमारा स्वागत किया. आँखों ने आव-भगत की। हम भी पास में पड़ी एक बेंच पर बैठ गये। उसे देखकर हमारी आँखों से आँसू टपक पड़े। हमारे आँसू देखकर उसकी आँखें भी नम हो गईं; पर उसने कहा - "अरे! गुरुजी आपकी आँख में पानी!" मैंने कहा - "अरे पगले! ये तो तुम जैसे साधर्मीजनों को देखकर प्रेमाश्रु आ गये हैं। दुखद आँसुओं का क्या काम?" फिर मैंने पूछा - "घर-परिवार वाले सब कहाँ गये? क्या यहाँ कोई नहीं है?" विवेकी का उत्तर था - "अरे भाई! एक दिन की बात थोड़े ही है, जो सब लोग यहाँ मेरे पास बैठे रहें। आखिर रोजी-रोटी भी तो कमानी है, धंधा-पानी नहीं देखेंगे तो घर-खर्च कैसे चलेगा? बाहर नौकर बैठा है, जरूरत के काम वह करता रहता है।" मैंने कहा – “वह तो शायद बहरा है।" विवेकी बोला - हाँ, भाई। नौकर आजकल मिलते ही कहाँ है? मेरी पत्नी ने बीच में बात काटते हुए पूछा - "और बहुएँ-बेटियाँ कहाँ चली गई।" विवेकी बोला - "बच्चे तो कॉलेज, स्कूल गये होंगे और बहुएँ विश्राम कर रही होंगी। वे भी बेचारी दिन भर काम करते-करते थक जार्ती हैं। आखिर शरीर ही तो है, थोड़ा बहुत विश्राम तो माँगता ही है न?" मैं बैठे-बैठे सोच रहा था “तत्त्वज्ञान का पूरा लाभ तो इस भले आदमी ने लिया है, इसे किसी में कोई कमी तो दिखाई ही नहीं देती। सच्चे उपगूहन अंग का धारी तो इसे कहते हैं। (65)
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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