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विदाई की बेला/१५
भला उस समय कौन जानता था कि यही वायुभूत आगे चलकर महामुनि सुकुमाल बनेंगे और साधु परमेष्टी में सम्मिलित होकर जगत पूज्य हो जायेंगे?
वस्तुतः संसार में संसरण करने वाले, भव-भ्रमण करने वाले सभी जीव भूले भगवान हैं। अपने उस भगवत स्वभाव को न जानने-पहचानने रूप भूल मूल में हो रही है। इसी भूल का दूसरा नाम तो संसार है। जब तक यह जीव अपनी भगवत्ता को नहीं जानेगा, पहचानेगा; तब तक जन्म-मरण का अभाव नहीं हो सकता। इस दृष्टि से अपने आत्मस्वरूप को न जानना, न पहचानना कोई साधारण भूल नहीं है, क्योंकि साधारण मूल की इतनी बड़ी सजा नहीं हो सकती।
जगत में जो हम जन्म-मरण कर रहे हैं, दुःख भोग रहे हैं, वे सब इसी मूल में हो रही भूल के कारण ही तो भोग रहे हैं। सभी अपने स्वभाव को भूले हुए हैं। पर यह बात हम संसारी प्राणियों को समझ में अभी तक नहीं
आई। हम अब तक इन दुःखों के कारणों की खोज बाह्य जगत में ही करते रहे हैं, जबकि भूल अपने अन्दर ही है। ___ यदि हम अपनी यह भूल स्वीकार कर लें तो फिर हम संसार में संसरण करें ही क्यों?
जिसप्रकार पागलखाने में रहने वाला कोई भी पागल अपने को पागल नहीं मानता, उसीप्रकार कोई भी संसारी प्राणी अपने को भूला हुआ नहीं मानता। यही तो हमारी सबसे बड़ी भूल है, सबसे बड़ा पागलपन है।
पर, सौभाग्य यह है कि वह भूल केवल अपनी एक समय की पर्याय में ही हुई है, त्रिकाली आत्मद्रव्य में नहीं। भगवान आत्मतत्त्व तो सदा निर्भूल स्वभावी ही है और उस निर्मूलस्वभावी आत्मा या कारणपरमात्मा का आश्रय लेते ही, उस पर दृष्टि डालते ही हमारी (अज्ञानी जीवों की)
विदाई की बेला/१५
११३ यह अनादिकालीन भूल मिट जाती है। अतः इस दिशा में हमें सदैव सक्रिय रहना चाहिए।
यह तो हुई बहुत बड़ी भूल की बात, पर हम तो इतने लापरवाह हैं कि सामान्य-सी छोटी-मोटी भूलों की भी परवाह नहीं करते। कभीकभी सामान्य-सी दिखने वाली भूल भी या जरा सी नासमझी भी कैसे तिल का ताड़ या राई का पहाड़ बन जाती है, यह हम सोच भी नहीं सकते । अतः हमें कोई भी छोटा-बड़ा काम करने के पहले उसके पूर्वापर परिणाम पर दूरदृष्टि से विचार अवश्य कर लेना चाहिए।
किसी कवि ने ठीक ही कहा है :"छोटा बड़ा कुछ काम कीजे, परन्तु पूर्वापर सोच लीजे। बिना विचारे यदि काम होगा, अच्छा न उसका परिणाम होगा"
यदि यह देखना हो कि - राग-द्वेष वश की गई छोटी-सी भूल का कितना भयंकर परिणाम हो सकता है तो यह भी हम उपसर्गजयी उन्हीं महामुनि सुकुमाल के पूर्वभव की उस छोटी-सी घटना में देख सकते हैं, जिसमें उन्होंने सामान्य-सी नासमझी में भी अपनी भाभी को लात मारकर की थी। उसीका फल उन्हें इतने बड़े प्राणघातक उपसर्ग के रूप में भोगना पड़ा।
कवि सूरचंदकृत वृहत समाधिमरण पाठ में भी उनका इसीप्रकार का उल्लेख आया है। वहाँ लिखा है -
"धन्य-धन्य सुकुमाल महामुनि कैसे धीरजधारी। एक श्यालनी जुग वच्चाजुत, पाँव भख्यो दुःख भारी।। यह उपसर्गसह्योधरथिरता आराधन सुखकारी।
तो तुमरे जिय कौन दुःख है, मृत्यु महोत्सव भारी।।" एक नहीं, ऐसे अनेक उपसर्गजयी साधुओं को इस रूप में स्मरण किया गया कि उन्होंने बड़े-बड़े भयंकर दुःख सहे हैं। हमें-तुम्हें तो उनकी तुलना में कुछ भी कष्ट नहीं है। अतः हमें भी उनसे प्रेरणा लेकर आये दुःख को अपनी ही भूल का फल या अपने उदय का परिणाम समझकर