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विदाई की बेला/१४ परिणामों से बचे रहोगे और आत्मा की आराधना में लगे रहोगे तो दुःख के कारणभूत सभी संचितकर्म क्षीण हो जायेंगे।
तुम चाहे निर्भय रहो या भयभीत, रोगों का उपचार करो या न करो, जो प्रबलकर्म उदय में आया है, वह तो फल दिए बिना जायेगा नहीं। रोगोपचार भी कर्म के मंद उदय में ही अपना कार्य करेगा। जब तक असाता कर्म का प्रबल उदय रहता है, तब तक कोई भी औषधि निमित्त रूप से भी कार्यकारी नहीं होती। अन्यथा बड़े-बड़े वैद्य, डॉक्टर तथा राजा-महाराजा तो कभी बीमार ही नहीं पड़ते; क्योंकि उनके पास उपचार के साधनों की क्या कमी? अतः स्पष्ट है कि होनहार के आगे किसी का भी वश नहीं चलता।
ऐसा मानकर समताभाव से उस दुःख के भी ज्ञाता-दृष्टा रहना योग्य है। ऐसा करने से ही व्यक्ति अपने मरण को समाधिमरण के रूप में परिणत कर सकते हैं।
यदि अशा वेदना हो रही हो और उपयोग आत्मा में न लगता हो तो उस समय 'संसार, शरीर व भोगों से विरक्त, स्वरूपसाधक, उपसर्गजयी गजकुमार, सुकौशल एवं सुकुमाल जैसे सुकुमार मुनिराजों द्वारा कठोर साधना करने एवं उनमें असह्य वेदना को सहने की सामर्थ्य कहाँ से, कैसे आ गई?' इसका विचार करो और सोचो कि इनकी तुलना में हमें तो कुछ भी कष्ट नहीं है।"
ऐसा सोचने, विचार करने से हममें भी भेदविज्ञान के बल से वैसा ही साहस व सामर्थ्य प्रगट होने लगेंगे, जिससे कठिनतम प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति हममें अवश्य प्रगट होगी।" ___मेरे विचार से सदासुखी एवं विवेकी आश्वस्त तो हुए, पर अब उनके मन में उन उपसर्गजयी संतों के जीवनदर्शन को जानने की उत्कृष्ट अभिलाषा जागृत हो गई। एतदर्थ उन्होंने अपने घर जाने के कार्यक्रम को
और एक सप्ताह के लिए स्थगित कर दिया। ____ मैंने भी उन्हें कतिपय उपसर्गजयी समाधिधारक महान आत्माओं के प्रेरणादायक जीवन-दर्शन कराने का निश्चय कर लिया।
कोई कितने ही प्रयत्न क्यों न करें, पर होनहार को कोई टाल नहीं सकता। जो होना है वह तो होकर ही रहता है।
'द्वारिका द्वीपायन मुनि के निमित्त से जलकर भस्म हो जायेगी', इस भविष्यवाणी को सुनकर द्वीपायन बारह वर्ष के लिए द्वारिका छोड़कर चले गये, उन्होंने सोचा - 'न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी', फिर भी क्या वे उसे जलने से रोक पाये? नहीं, नहीं रोक पाये । द्वारिका जली और द्वीपायन मुनि के निमित्त से ही जली।
सुकुमाल को वैराग्य न हो जाए एतदर्थ उसकी माँ सुभद्रा ने क्या कम कोशिशें कीं? लाखों-लाख प्रयत्न किए। न केवल उसे वैराग्य के वातावरण से बचाया, साधु समागम से दूर रखा, साथ ही उसे संसार में उलझाये रखने के लिए भी राग-रंग एवं भोगमय वातावरण बनाने के भरपूर प्रयत्यन किए। सभी प्रकार के सुखद संयोग मिलाये।
इसके लिए सुभद्रा ने अपने बेटे की एक-दो नहीं बत्तीस-बत्तीस शादियाँ की और एक से बढ़कर एक अतिसुन्दर सर्वगुण संपन्न ऐसी पतिसेवापरायण बत्तीस पत्नियाँ सुकुमाल की सेवा में खड़ी कर दीं, जो अपने पति की सेवा-सुश्रूषा में सतत सावधान रहतीं। इसतरह संसार में जो भी सुख संभव थे, माँ सुभद्रा ने सुकुमाल के लिए वे सब जुटाये, सभी भोगोपभोग सामग्री जुटाकर उसे भोगों में आकंठ निमग्न कर दिया। पर क्या इससे सुभद्रा का चाहा हो पाया? नहीं, अन्ततोगत्वा हुआ वही, जो होना था।
भविष्यवाणी के अनुसार सुभद्रा के पति सेठ सुरेन्द्रदत्त जब अपने पुत्र सुकुमाल का मुख देखते ही संन्यासी होकर बनवासी हो गये तो सुभद्रा को आशंका हुई कि पिता की तरह उसका पुत्र भी कहीं साधु न
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