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विदाई की बेला/१४
क्रमशः कम करते हुए परिणामों में शुद्धि की वृद्धि के साथ शरीर का परित्याग करता है। बस यही संक्षेप में सल्लेखना का स्वरूप है।
समाधि की व्याख्या करते हुए शास्त्रों में कहा गया है कि 'समरसी भाव:-समाधिः, समरसी भावों का नाम समाधि है। उत्तम परिणामों में चित्त को स्थिर रखना या पंचपरमेष्ठी को स्मरण करना समाधि है।'
समाधि में त्रिगुप्ति की प्रधानता होने से समस्त विकल्पों का नाश होना मुख्य है। मुनिराजों के समस्त शुभाशुभ विकल्प छूट जाते हैं, इसलिए वे परमसमाधि के धारक होते हैं।
वचनोच्चारण की क्रिया परित्याग कर संयम, नियम एवं तप पूर्वक निज शुद्धात्मस्वरूप का ध्यान परमसमाधि है।'
सल्लेखना में जहाँ काय या कषाय को कृश करना मुख्य है, वही समाधि में निज शुद्धात्मस्वरूप का ध्यान प्रमुख है।
वैसे तो सल्लेखना व समाधि शब्द पर्यायवाची शब्द के रूप में भी प्रयुक्त हुए हैं, फिर भी सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि समाधि से ही सल्लेखना सफल हो सकती है। जब तक जीवन में पर के प्रति समरसी भाव या साम्यभाव नहीं होगा तबतक कषायों का कृश कर पाना संभव ही नहीं है और कषायें कृश हुए बिना शरीर को कृश करने का कुछ भी अर्थ नहीं है। कषायों के साथ काय का कृश करना ही सल्लेखना है। केवल काय को कृश करना तो आत्मघात है, सल्लेखना नहीं।"
इसप्रकार सल्लेखना व समाधि का संक्षेप में अन्तर स्पष्ट करते हुए मैंने उनसे सल्लेखना के भेद-प्रभेदों की भी संक्षेप में चर्चा की, जो इस प्रकार है - सल्लेखना के कई प्रकार से भेद किए जा सकते हैं। जैसे कि -
विदाई की बेला/१४
नित्यमरण व तद्भवमरण की अपेक्षा नित्यमरण सल्लेखना एवं तद्भवमरण सल्लेखना ये दो भेद हैं।
(१) नित्यमरण - प्रतिसमय आयुकर्म के क्षय के साथ द्रव्यसल्लेखनापूर्वक विकारी परिणाम विहीन शुद्ध परिणमन नित्य मरण सल्लेखना है।
(२) तद्भव मरण - भुज्यमान (वर्तमान) आयु के अन्त में शरीर और आहार आदि के प्रति निर्ममत्व होकर साम्यभाव से शरीर त्यागना तद्भव मरण सल्लेखना है।
विवेकी ने पूछा - "ये तो ठीक, पर शास्त्रों में कायसल्लेखना, कषाय-सल्लेखना, भक्त प्रत्याख्यान आदि नाम भी तो सल्लेखना के प्रकरण में आते हैं। ये क्या हैं? इनका क्या स्वरूप है? तथा इनके धारण की विधि क्या है? यह भी हम जानना चाहते हैं, कृपया इनका भी स्पष्टीकरण कर दीजिए? ___ मैंने कहा - "काय को कृश करना, सहनशील बनाना कायसल्लेखना है।" यदि काय को पष्ट किया, आरामतलब बनाया तो इंद्रियों के विषयों में अधिक प्रवृत्ति होती है, आत्मा मलिन होता है, काम वासना बढ़ती है, निद्रा प्रमाद आलस्य आता है। वात-पित्त-कफ आदि रोग हो जाते हैं। अतः समाधिधारक को तपश्चरण द्वारा काया को कृश करना आवश्यक है।
जैसी आयु की स्थिति जाने, तदनुसार देह से ममत्व कम करते हुए आहार के आस्वाद से विरक्त हो, रसों की गृद्धता छोड़कर नीरस आहार लेना प्रारंभ करें। एतदर्थ कभी उपवास, कभी एकाशन, कभी नीरस आहार, कभी अल्प आहार (ऊनोदर) - इस तरह क्रम-क्रम से अपनी शक्ति प्रमाण आहार को कम करते हुए दूध पर आवे, दूध से छाछ, छाछ से गर्म पानी तत्पश्चात पानी का भी त्याग करके देह का त्याग करना काय-सल्लेखना है।
१ महापुराण २१ - २२६ २ परमात्मप्रकाश १९०
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