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विदाई की बेला/११
जैसा कि जीवन्धर चरित्र में आई कथा से स्पष्ट है । उस कथा में तो साफसाफ कहा गया है कि महाराजा सत्यन्धर के पुत्र जीवन्धर कुमार के द्वारा एक मरणासन्न कुत्ते के कान में णमोकार मंत्र सुनाया था, जिसके परिणाम स्वरूप वह कुत्ता स्वर्ग में अनेक ऋद्धियों का धारक महर्द्धिक देव हुआ। इससे बड़ा प्रमाण और क्या चाहिए? क्या पुराणों की बातें गलत हो सकती हैं? ____ मैंने उसकी जिज्ञासा शांत करते हुए कहा - "अरे भाई! यह राजमार्ग नहीं हैं। अन्यथा मुनि बनने और आत्म साधना का उपदेश क्यों दिया जाता? कदाचित् कभी अंधे के हाथ बटेर लग जाये तो इसका अर्थ यह तो नहीं कि बटेर पकड़ने के लिए आँख की आवश्यकता ही नहीं है। जिस तरह युद्ध के मैदान में सफलता प्राप्त करने के लिए जीवन भर अस्त्र-शस्त्र कला का अभ्यास जरूरी है, उसी तरह मृत्यु को महोत्सव बनाने के लिए जीवनभर तत्त्वाभ्यास जरूरी है।
तुमने जो जीवन्धर चरित्र (क्षत्रचूड़ामणी) में आई कुत्ते को स्वर्ग प्राप्त होने की कथा के संदर्भ में प्रश्न किया है, वह अवश्य ही विचारणीय है क्योंकि वह भी तो पौराणिक कथा है; परन्तु उस कथन के अभिप्राय को समझने के लिए हमें प्रथमानुयोग के शास्त्रों (पुराणों) की कथन पद्धति एवं उनके व्याख्यान का विधान समझता होगा। एतदर्थ पण्डित टोडरमलजी कृत मोक्षमार्ग प्रकाशक का निम्न कथन द्रष्टव्य हैं, जैसे - “किसी ने उपवास किया उसका फल तो अल्प था, परन्तु उसे अन्य धर्म परिणति की विशेषता हुई, इसलिए विशेष उच्च पद की प्राप्ति हुई, वहाँ उसको उपवास ही का फल निरूपित करते हैं।
जिस प्रकार किसी ने नमस्कार मंत्र का स्मरण किया व अन्य धर्म साधन किया, उसके कष्ट दूर हुए, अतिशय प्रगट हुए; वहाँ उन्हीं का वैसा फल नहीं हुआ, परन्तु अन्य किसी कर्म के उदय से वैसे कार्य हुए हैं; तथापि उनको उन शीलादि का ही फल निरूपित करते हैं। उसी प्रकार
विदाई की बेला/११ कोई पापकार्य किया, उसको उसी का तो वैसा फल नहीं हुआ है, परन्तु अन्य कर्म के उदय से नीच गति प्राप्त हुई अथवा कष्टादि हुए, उसे उसी पाप का फल निरूपित करते हैं।" ___यदि उपर्युक्त प्रश्न को हम इस संदर्भ में देखें तो उस कुत्ते को न केवल णमोकार मंत्र के शब्द कान में पड़ने से स्वर्ग की प्राप्ति हुई, बल्कि उस समय उसकी कषायें मंद रहीं होगी, परिणति विशुद्ध रही होगी, निश्चित ही वह जीव अपने पूर्वभवों में धर्म संस्कार से युक्त रहा होगा; पर प्रथमानुयोग की शैली के अनुसार ‘णमोकार महामंत्र' द्वारा पंच परमेष्ठी के स्मरण की प्रेरणा के प्रयोजन से उसकी स्वर्ग की प्राप्ति को मात्र णमोकार मंत्र का फल निरूपित किया है। जो सर्वथा उचित है, और प्रयोजन की दृष्टि से पूर्णसत्य है, यथार्थ है। जिनवाणी के सभी कथन मतार्थ की मुख्यता से ही होते हैं। अतः उनका अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए, अभिधेयार्थ ग्रहण करना चाहिए, शब्दार्थ नहीं। ___ यद्यपि लोकदृष्टि में लोकविरुद्ध होने से अन्य उत्सवों की भाँति मृत्यु का महोत्सव खुशियों के रूप में तो नहीं मनाया जा सकता, पर तत्त्वज्ञानियों द्वारा मृत्यु को महोत्सव जैसा महसूस तो किया ही जा सकता है।
जब इस जीव को भेदज्ञान के बल से निज-पर का विवेक जागृत हो जाता है, अपने अमरत्व की श्रद्धा हो जाती है; तब वह तत्त्वाभ्यास से ऐसा अनुभव करने लगता है कि - "मैं तो इस विनाशीक शरीर से भिन्न अजर-अमर अविनाशी हूँ। मेरी तो कभी मृत्यु होती ही नहीं है। मृत्यु तो केवल एक देह से दूसरी देह में गमन क्रिया का नाम है, जो कि आयुपूर्ण होने पर अवश्यंभावी है। जब आयुकर्म की स्थिति पूर्ण हो जाती है तो न चाहने पर भी जीव को एक देह से दूसरी देह में जाना ही पड़ता है, देह को छोड़ना ही पड़ता है तथा जीर्ण-शीर्ण और असाध्य रोगी होने पर आत्माराधन एवं संयम की साधना में असमर्थ देह को छूटना ही चाहिए, अन्यथा जीर्ण-शीर्ण शरीर को कोई कब तक ढोता रहेगा?"
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