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विदाई की बेला/८ इससे उसके जीवन में तो आमूल-चूल परिवर्तन हुआ ही, उससे अन्य अनेक स्थानीय महिलाओं ने भी प्रेरणा ली।
विदाई की बेला/4 यद्यपि मुझे घर जाने की कोई जल्दी नहीं थी, पर निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार मेरे प्रवास का समय समाप्त हो गया था, अतः मुझे समय पर घर वापिस पहुँचना आवश्यक लग रहा था, ताकि मेरे कारण घर-परिवार वालों को आकुलता न हो। पर उन लोगों की अतृप्त जिज्ञासा को यों ही छोड़कर चले जाना मेरे मन को स्वीकृत नहीं हुआ।
पिछले दो सप्ताह तक तो मैं एकांत में चिन्तन-मनन की दृष्टि से सब परिवारजनों से स्पष्ट कहकर अज्ञातवास में रहा था। पर अब मुझे अपने रुकने के लिए आगामी कार्यक्रम की सूचना देना आवश्यक हो गया था, अन्यथा सभी लोग चिन्तित हो उठते।।
मेरा समाचार घर पहुँचा ही था कि दूसरे ही दिन मेरी धर्मपत्नी वहाँ आ पहुँची। मानो वह मेरे पत्र की प्रतीक्षा ही कर रही थी।
पत्नी को अचानक वहाँ पहुँचा देख मैं आश्चर्य में डूब गया।
मुझे विचार आया कि जिसे मैं अज्ञातवास में आते समय एक सहधर्मी पति के कर्त्तव्य के नाते धर्म लाभ हेतु साथ में चलने को कह-कह कर थक गया था, वही आज अचानक अपने पोते-पोतियों और बहू-बेटियों से मोह तोड़कर, घर-द्वार को उनके भरोसे छोड़कर एवं विषय-कषायों से मुँह मोड़कर यहाँ सत्संग करने कैसे आ गई?
चलो, कोई बात नहीं, 'जब जाग जाये तभी है सवेरा' - यह सोचकर मैं मन ही मन खुश था। ___मैं सोच रहा था - "जो पत्नियाँ केवल विषय-कषाय एवं राग-रंग में ही सहभागी बनती हैं, धर्मसाधन में साथ नहीं रहती, उन्हें तो धर्मपत्नी कहलाने का अधिकार ही नहीं है। संभवत: मेरी पत्नी अब सच्चे अर्थों में धर्मपत्नी बन जायेगी।"
हुआ भी यही, वह वहाँ मेरे साथ एक सप्ताह घर के सब संकल्पविकल्पों को छोड़कर सदासुखी, विवेकी तथा वहाँ के सामान्य श्रावकश्राविकाओं के साथ हुई सामूहिक तत्त्वगोष्ठियों में सक्रिय भाग लेती रही।
बातचीत के बीच विवेकी ने पूछा - "भाईजी! उस दिन आपने कहा था - 'निष्कषाय भाव या शांत परिणामों का दूसरा नाम ही समाधि है और वह निष्कषाय भाव या कषायों का शमन वस्तुस्वरूप की यथार्थ समझ से ही होता है। अतः मैं जानना चाहता हूँ कि वस्तुस्वरूप की समझ से आपका क्या तात्पर्य है?"
विवेकी की वस्तुस्वरूप को समझने की जिज्ञासा देखकर मुझे प्रसन्नता हुई और मैंने जिनागम के अनुसार वस्तुस्वरूप की व्याख्या करते हुए बताया - ___ "लोक के सभी द्रव्यों को, पदार्थों को वस्तुत्वगुण के कारण वस्तु भी कहते हैं। इन सभी वस्तुओं का स्वरूप पूर्ण स्वतंत्र व स्वाधीन है। आत्मा भी एक अखण्ड, अविनाशी, अनादि-अनंत, ज्ञानानन्दस्वभावी, पूर्ण स्वतंत्र वस्तु है। ज्ञाता-दृष्टा रहना उसका स्वभाव है। क्रोधादि करना
आत्मा का स्वभाव नहीं, विभाव है। स्वभाव से विपरीत भाव को विभाव कहते हैं। काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ आदि के भाव आत्मा के विपरीत भाव हैं। अतः ये सब विभाव है। ____ जब तक यह जीव वस्तुस्वातंत्र्य के इस सिद्धान्त को नहीं समझेगा और क्रोधादि विभाव भावों को ही स्वभाव मानता रहेगा, अपने को पर का कर्ता-धर्ता मानता रहेगा तब तक समता एवं समाधि का प्राप्त होना संभव नहीं है।"
एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया - “वस्तुस्वातंत्र्य की समझ से समता कैसे आती है?" ____ मैंने कहा - "तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया है - अब जरा ध्यान से सुनो! इन दोनों का परस्पर चोली-दामन जैसा अत्यन्त निकट संबंध है। प्रत्येक वस्तु या लोक के सभी पदार्थ पूर्ण स्वतंत्र और स्वावलंबी हैं। कोई
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