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चुके हैं और माँग ऐसी बनी हुई है कि समय पर पूर्ति कर पाना भी कठिन हो रहा है। पाठकों के साथ पत्र-पत्रिकाओं और समीक्षकों ने भी उसे खूब सराहा है।
हमें विश्वास है कि 'विदाई की बेला' भी समाज में इसी तरह समादृत होगी और पठन-पाठन में आयेगी। इसमें कथानक के माध्यम से जिन अध्यात्म को अपनाने की ऐसी मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रेरणा दी गई है कि पाठक का हृदय परिवर्तित हुए बिना नहीं रहेगा।
यद्यपि इसमें संन्यास व समाधि की चर्चा है, पर यह उस संन्यास व समाधि की बात है, जिसकी साधना-आराधना जीवन के उत्तरार्द्ध में या मृत्यु के समय नहीं, बल्कि जीवन के स्वर्णकाल में, घर-गृहस्थी में रहकर भी की जा सकती है और की जानी चाहिए। यह आबाल-वृद्ध सभी के लिए अत्यन्त उपयोगी है। इसके सुन्दर प्रकाशन के लिए श्री अखिल बंसल भी धन्यवाद के पात्र हैं। दिनांक : १९ जनवरी १९९२ (प्रथम संस्करण) - नेमीचन्द पाटनी महामंत्री - पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर
प्रकाशकीय : हिन्दी का बारहवाँ संस्करण
यह सुखद आश्चर्य एवं प्रसन्नता का विषय है कि विगत तेरह वर्षों के अल्पकाल में इसके सत्ररह संस्करण प्रकाशित करने का सौभाग्य हमें मिल चुका है। साथ ही दैनिक समाचार जगत पत्र ने भी इसकी विषयवस्तु से प्रभावित होकर इसे क्रमशः प्रकाशित किया है। जोकि एक लाख २० हजार छपता है।
यह भी गौरव की बात है कि हिन्दी के सिवाय मराठी में भी इसके चार | संस्करण तथा गुजराती में दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। हिन्दी का यह ग्यारहवाँ संस्करण है।
इसप्रकार यह कृति अबतक कुल मिलाकर दो लाख नौ हजार की वृहद संख्या में प्रकाशित होकर जन-जन के हाथों में पहुँच चुकी है।
इसकी लोकप्रियता और उत्कृष्टता के लिए उपर्युक्त आँकड़े ही पर्याप्त हैं। समय-समय पर समीक्षकों एवं पाठकों ने भी लेखक की अन्य कृतियों की भाँति इस कृति की भी दिल खोलकर सराहना की है। नवीन पाठकों की | प्रेरणा हेतु कतिपय महत्त्वपूर्ण अभिमत पुस्तक के अन्त में प्रकाशित हैं। दिनांक : २७ मई २००७ - ब्र. यशपाल जैन प्रकाशन मंत्री
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