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विदाई की बेला/७ “बेटे माँ-बाप को भी छोड़ देते....।"
सदासुखी के मुँह से ये बातें सुनकर विवेकी भी उछल पड़ा था और वह भी वाह-वाह करता हुआ बोला - “वाह! सदासुखी तुमने तो कमाल कर दिया।"
"क्या खाक कमाल कर दिया । तुम तो ऐसे दाद दे रहे हो जैसे मैं कोई बहुत बड़ा कवि या शायर बन गया होऊँ। अरे भाई! मेरे मुँह से तो टूटेफूटे शब्दों में केवल मेरे और जनता के दिल का दर्द निकला था।"
विवेकी ने कहा - “कवि भी तो ऐसे ही बनते हैं - आपको पता नहीं, बाल्मीकि महाकवि कैसे बने थे?"
उनको लक्ष्य करके ही कवि सुमित्रानंदन पंत ने यह कहा है :'वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान । उमड़ कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान ।।'
सदासुखी ने आगे कहा - "भाईजी ने अपने व्याख्यान में एक कहानी के माध्यम से इस स्वार्थी जगत का जो शब्दचित्र प्रस्तुत किया था, वह मोहनींद में सोए हम-तुम जैसे सब जीवों की आँखें खोलने के लिए पर्याप्त था।
विवेकी ने अपनी भूल का अहसास करते हुए पुनः कहा - "भाई! मुझसे सचमुच भूल हुई है कि मैंने ऐसा स्वर्ण अवसर खो दिया । यदि तुम सुना सकते हो तो वह कहानी भी अवश्य सुनाओ। मैं भविष्य में समय पर प्रतिदिन उपस्थित रहने का पूरा-पूरा प्रयत्न करूँगा।"
विवेकी के अनुरोध पर सदासुखी ने भाईजी के व्याख्यान में सुनी कहानी को सुनाते हुए कहा - "एक सेठ था, जिसका नाम था खुशीराम । दुनिया की दृष्टि में खुशीराम सब ओर से सुखी था, साठ वर्ष का होते हुए भी पूर्ण स्वस्थ था, अटूट संपत्ति थी, कल-कारखानों से असीमित आय, पाँच-पाँच लड़के, उनकी एक से बढ़कर एक सुन्दर व सुशील बहुएँ, किलकारियों से घर का कोना-कोना गुंजाते पोते-पोतियाँ कुलवंती नारी,
विदाई की बेला/७ आज्ञाकारी पुत्र, अनुकूल अड़ौसी-पड़ौसी, सेवाभावी नौकर-चाकर सभी सदैव उनकी सेवा में समर्पित, विलायती गाड़ियाँ, बड़े-बड़े बंगले । क्या नहीं था उसके पास? एक तत्त्वज्ञान के सिवाय सब कुछ तो था।
भाग्योदय से ज्ञानियों के जीवन में यदि ऐसा बनाव बन भी जावे तो वे तो इस ठाठ-बाट की क्षण-भंगुरता को भली-भाँति जानते हैं, अतः वे इस ठाठ-बाट से तन्मय नहीं होते, प्रभावित भी नहीं होते। पर यदि यही सब अनुकूल संयोग अज्ञानियों को मिल जायें तो उन्हें अपच हुए बिना नहीं रहता, अभिमान हुए बिना नहीं रहता।
सेठ खुशीराम को भी यह सब पचा नहीं था, इस कारण अब वह आसमान में उड़ाने भरने लगा था। अब उसका पाँव जमीन पर टिकता ही नहीं था, वह अपने आगे किसी को कुछ समझता ही नहीं था। किसी से सीधे मुँह बात करना तो मानो वह भूल-सा ही गया था और नीचे की
ओर देखना भी अब उसकी आदत में नहीं रहा था। पर सबके दिन सदा एक से नहीं रहते। वह भी उन्हीं में से एक था, जो जल्दी ही जमीन पर आ गिरा।
एक बार वह ऐसा बीमार पड़ा कि लाखों प्रयत्नों के बावजूद भी स्वस्थ नहीं हआ। जब वह सब ओर से निराश हो गया तो उसे भगवान याद आये। दैवयोग से एक दिन अनायास उसके घर एक महात्माजी आ पहुँचे। ___ महात्माजी ने सेठ को साठोत्तर एवं अत्यधिक अस्वस्थ देखकर शेष जीवन को धर्म आराधनापूर्वक बिताने की सलाह दी।
उन्होंने कहा - "देखो सेठ! मैं अपने निमित्तज्ञान से तुम्हारे भूत व भविष्य को अच्छी तरह जानता हूँ। तुम्हारे पुण्योदय से तुम्हारा भूतकाल तो बहुत ही अच्छा बीता है, पर तुम्हारी वर्तमान परिणति देखते हुए मुझे तुम्हारा भविष्य सुखद दिखाई नहीं देता। अब तुम्हारा पुण्य क्षीण हो चला है, इस कारण बुढ़ापे में तो सुख शांति दीखती ही नहीं, अगला जन्म भी
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