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________________ विदाई की बेला/२ केवल अपमान, उपेक्षा और बे-मौत मरने की मजबूरी।" उन बूढ़े माँ-बाप की इस बड़बड़ाहट में व्यक्त हो रही वचनातीत पीड़ा को वाणी देना तो दूर, कल्पनाओं की सीमा में समेट पाना भी संभव नहीं है। जब कभी वह स्वयं अपने बूढ़े माता-पिता की स्थिति से गुजरे और उसके बेटे-बहू उसके साथ भी वैसा ही उपेक्षित और अपमानजनक व्यवहार करें, संभव है तब कहीं उसमें कुछ अक्ल आये। पर उस समय तक तो सब कुछ चूक चुकेगा। तब फिर पछताने के सिवाय हाथ में रहेगा ही क्या? वक्त यूँ ही व्यतीत होता रहा और थोड़े दिनों के अन्तराल से वे दोनों ही उस जीवन के बन्धन से सदा-सदा के लिए मुक्त हो गए। विदाई की बेला/२ के सामने उन्हें अपने खानदानी नौकर-नौकरानी कहकर उनके हृदय पर वज्रपात जैसा हृदय-विदारक प्रहार किया हो, तब स्वाभिमानी मातापिता के मन-मष्तिष्क पर विपरीत प्रभाव पड़ना तो स्वाभाविक ही था; क्योंकि उस असह्य हार्दिक वेदना को उनके द्वारा झेल पाना संभव नहीं था। उनकी वेदना को तो कोई सहृदय भुक्तभोगी माता-पिता ही समझ सकते थे। हम जैसे हृदयहीन नालायक बेटे-बहू उनकी उस मरणतुल्य मानसिक पीड़ा को क्या जानें?" _हमारे इस व्यवहार से दुःखी होकर वे दोनों अर्द्धनिद्रा में बड़बड़ाते रहते थे; कहते रहते थे - "हे भगवान! जमीन फट क्यों नहीं जाती, जिसमें हम समा जायें? यह सब देखने-सुनने के पहले ही ये आँखें अंधी और कान बहरे क्यों नहीं हो गये? यह अपमान सहने के पहले ही ये सांसें सदा के लिए थम क्यों नहीं गईं? क्या यही दिन देखने के लिए नाना कष्ट सहकर हमने इस नालायक को नौ माह पेट में, अठारह माह गोद में और अठारह वर्ष घर में सीने से लगाये रखकर, दिन-रात इसकी चिन्ताओं की चिता में जल-जलकर, शरीर को सुखाया? स्वयं रूखा खाया और इसे मेवा-मिष्ठान्न खिलाया, केसरिया दूध पिलाया । ऐसा करके क्या हमने सचमुच आस्तीन के सांप को पाला है, काले नाग को दूध पिलाया है? क्या यही दिन देखने के लिए दिन-रात परिश्रम कर-कर के पैसा कमाया था, पानी की तरह पैसा बहाकर इसे पढ़ाया-लिखाया था और इस योग्य बनाया था? क्या यही अपमान के खून के चूंट पीने के लिए इसका इतने ठाट-बाट से विवाह किया था? अरे भगवान! यह मानव क्या इसी तरह की संतान के लिए ऐसा तरसता-तड़पता है? अपनी जान को जोखिम में डाल-डाल कर अपना परभव बिगड़ने की परवाह न कर जैसे बने तैसे नीति-अनीति से संतान के सुख के लिए दिन-रात एक करता है? और उसके बदले संतान देती है दीपावली के लिए सफाई अभियान चल रहा था, उस प्रसंग में एक दिन जब हम ऊपर वाले कमरे में गये तो यह देखकर दंग रह गये कि कमरे के एक कौने में उन सारे मिट्टी के कूँडो का ढेर लग रहा था, जिनमें हम अपने माता-पिता को खाना दिया करते थे। ____ मुझे क्रोध आ गया और मैंने क्रोधावेश में डाँटते हुए बेटे से कहा - "क्यों रे पप्पू! तू इन्हें रोजाना क्यों नहीं फेंकता गया? अब इनका इतना बड़ा ढेर जमा हो गया है। जिसे फिकवाने के लिए मजदूर को कम से कम बीस-पच्चीस रुपये तो देने ही पड़ेंगे न?" अत्यन्त भोलेपन से बेटा बोला - “पापा! इन्हें फैंकने की क्या जरूरत है? ये तो बड़े काम के हैं।" "क्यों, क्या काम आयेंगे ये?" "जब आप व मम्मी बूढ़े हो जाओगे तो ये ही आपके काम आ जावेंगे न?" "क्या तू हमें इनमें खिलायेगा?" “पापा! मैं रोज-रोज नये फॅडे कहाँ से लाऊँगा? आप तो बड़े आदमी (12)
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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