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कार्यद्रव्यमनादि स्यात्
प्राग्भावस्य निवे ।
प्रध्वंसस्य च धर्मस्य
तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२
प्रच्यवेऽनन्ततां ब्रजेत् ।। १० ।।
प्रागभाव का अभाव मानने पर समस्त काय (पर्यायें) अनादि हो जायेंगे। इसी प्रकार प्रध्वंसाभाव नहीं मानने पर सभी कार्य (पर्यायें) अनन्त हो जावेंगे ॥ १० ॥
सर्वात्मकं तदेकं स्या
दन्याऽपोहव्यतिक्रमे ।
अन्यत्र समवाये न
व्यपदिश्येत सर्वथा ।। ११ ।।
यदि अन्योन्याभाव को नहीं मानेंगे तो दृश्यमान सर्व पदार्थ (पुद्गल ) वर्तमान में एकरूप हो जावेंगे और अत्यन्ताभाव न मानने पर सर्व द्रव्य त्रिकाल एकरूप हो जाने से किसी भी द्रव्य का व्यपदेश (कथन) भी नहीं बन सकेगा ।। ११ ।।
अभावैकान्त पक्षेऽपि
बोधवाक्यं प्रमाणं न
भावापह्लववादिनाम् ।
केन साधनदूषणम् ।। १२ ।।
भाव का सर्वथा अभाव मानने वाले अभावैकान्तवादियों के भी ज्ञान और वचनों की प्रामाणिकता के अभाव में, वे स्वमत की स्थापना और परमत का खण्डन किस प्रकार करेंगे? अतः अभावैकान्त भी ठीक नहीं है ।। १२ ।।
विरोधात्रोभयैकान्तं
अवाच्यतैकान्तेप्युक्ति
स्याद्वादन्यायविद्विषाम् ।
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र्नाऽवाच्यमिति युज्यते ।। १३ ।।
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देवागम स्तोत्र
यदि कोई भावैकान्त और अभावैकान्त में प्राप्त दोषों से बचने के लिए उभयैकान्त स्वीकार करे तो भी स्याद्वादन्याय के विद्वेषियों के मत में, दोनों (भावैकान्त और अभावैकान्त) के परस्पर विरोध होने से दोनों में पृथक्-पृथक् कथित दोष आये बिना नहीं रहेंगे। यदि उक्त परेशानी से बचने के लिए कोई अवाच्यैकान्त स्वीकार करे तो 'अवाच्य' कहने पर वस्तु 'अवाच्य' शब्द से 'वाच्य' हो जावेगी ।। १३ ।।
कथंचित्ते सदेवेष्टं
कथंचिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च
नययोगात्र सर्वथा ।। १४ ।।
अतः हे भगवन्! आपका बताया वस्तुस्वरूप कथंचित् सत् (भावस्वरूप), कथंचित् असत् (अभावरूप), कथंचित् उभय ( भावाभावरूप), कथंचित् अवक्तव्य, कथंचित् सद्द्भवक्तव्य, कथंचित् असद् अवक्तव्य और कथंचित् सद्-असद् अवक्तव्य है; पर यह सब सप्तभंग नयों की अपेक्षा से ही है, सर्वथा नहीं ॥ १४ ॥
सदैव सर्वं को नेच्छेत्
असदैव विपर्यासात्र
स्वरूपादिचतुष्टयात् ।
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चैत्र व्यवतिष्ठते ।। १५ ।।
स्वरूपादि चतुष्टय (स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव ) की अपेक्षा वस्तु के सद्भाव को कौन स्वीकार नहीं करेगा? उसी प्रकार पररूप चतुष्टय (परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, और परभाव) की अपेक्षा कौन अभाव को स्वीकार न करेगा? अर्थात् प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति स्वीकार करेगा ही । यदि कोई न करे तो उसके विचारानुसार वस्तुव्यवस्था सिद्ध न होगी ।। १५ ।। क्रमार्पितद्वयाद् द्वैतं
सहावाच्यमशक्तितः । अवक्तव्यौत्तराः शेषाः -
स्त्रयो भंगाः स्वहेतुतः ।। १६ ।।