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सीमन्धर पूजन
तत्वज्ञान पाठमाला, भाग-१
ले आया दीपक चरणों में, रे ! अन्तर आलोकित कर दो। प्रभु तेरे मेरे अन्तर को, अविलंब निरन्तर से भर दो।। ॐ हीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
धूप धू-धू जलती दुःख की ज्वाला, प्रभु त्रस्त निखिल जगतीतल है। बेचेत पड़े सब देही हैं, चलता फिर राग प्रभंजन है।। यह धूम घूमरी खा-खाकर, उड़ रहा गगन की गलियों में। अज्ञान-तमावृत चेतन ज्यों, चौरासी की रंग-रलियों में।। सन्देश धूप का तात्त्विक प्रभु, तुम हुए ऊर्ध्वगामी जग से। प्रकटे दशांग' प्रभुवर ! तुम को, अन्तःदशांग की सौरभ से ।। ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षत प्रभु ! अक्षतपुर के वासी हो, मैं भी तेरा विश्वासी हूँ। क्षत-विक्षत में विश्वास नहीं, तेरे पद का प्रत्याशी हूँ।। अक्षत का अक्षत-संबल ले, अक्षत-साम्राज्य लिया तुमने। अक्षत-विज्ञान दिया जग को, अक्षत-ब्रह्माण्ड किया तुमने ।। मैं केवल अक्षत-अभिलाषी, अक्षत अतएव चरण लाया। निर्वाण-शिला के संगम-सा, धवलाक्षत मेरे मन भाया ।। ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्प तुम सुरभित ज्ञान-सुमन हो प्रभु, नहिं राग-द्वेष दुर्गन्ध कहीं। सर्वांग सुकोमल चिन्मय तन, जग से कुछ भी सम्बन्ध नहीं ।। निज अंतर्वास सुवासित हो, शून्यान्तर पर की माया से । चैतन्य-विपिन के चितरंजन, हो दूर जगत की छाया से।। सुमनों से मन को राह मिली, प्रभु कल्पबेलि से यह लाया। इनको पा चहक उठा मन-खग, भर चोंच चरण में ले आया ।। ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नैवेद्य आनंद-रसामृत के द्रह हो, नीरस जड़ता का दान नहीं। तुम मुक्त-क्षुधा के वेदन से, षट्स का नाम-निशान नहीं ।। विध-विध व्यंजन के विग्रह से, प्रभु भूख न शान्त हुई मेरी।
आनंद-सुधारस-निर्झर तुम, अतएव शरण ली प्रभु तेरी ।। चिर-तृप्ति-प्रदायी व्यंजन से, हो दूर क्षुधा के अंजन ये।
क्षुत्पीड़ा कैसे रह लेगी? जब पाये नाथ निरंजन ये।। ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ-अशुभ वृत्ति एकान्त दुःख अत्यन्त मलिन संयोगी है। अज्ञान विधाता है इसका, निश्चित चैतन्य विरोधी है।। काँटों सी पैदा हो जाती, चैतन्य-सदन के आँगन में। चंचल छाया की माया-सी, घटती क्षण में बढ़ती क्षण में ।। तेरी फल-पूजा का फल प्रभु ! हों शान्त शुभाशुभ ज्वालायें। मधुकल्प फलों-सी जीवन में, प्रभु ! शान्ति-लतायें छा जायें।। ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्घ्य निर्मल जल-सा प्रभु निजस्वरूप, पहिचान उसी में लीन हए। भव-ताप उतरने लगा तभी, चन्दन-सी उठी हिलोर हिये ।। अभिराम भवन प्रभु अक्षत का, सब शक्ति प्रसून लगे खिलने। क्षुत् तृषा अठारह दोष क्षीण, कैवल्य प्रदीप लगा जलने ।। मिट चली चपलता योगों की, कर्मों के ईंधन ध्वस्त हुए। फल हआ प्रभो ! ऐसा मधुरिम, तुम धवल निरंजन स्वस्थ हुए।।
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा। १. फर्क, २. उत्तम क्षमादि दशधर्म
दीप
चिन्मय-विज्ञान-भवन अधिपति, तुम लोकालोक-प्रकाशक हो। कैवल्य किरण से ज्योतित प्रभु ! तुम महामोहतम नाशक हो ।। तुम हो प्रकाश के पुंज नाथ! आवरणों की परछाँह नहीं। प्रतिबिंबित पूरी ज्ञेयावलि, पर चिन्मयता को आँच नहीं ।।
१. पूर्ण शुद्ध स्वभाव पर्याय
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