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पंच भाव
तत्वज्ञान पाठमाला, भाग-१
३९
प्रवचनकार - सुनो ! मैं इन्हें पृथक्-पृथक् समझाता हूँ। समझने का यत्न करो, अवश्य समझ में आयेगा। १. औपशमिक भाव
(आत्मा की मुख्यता से) आत्मा के स्वसन्मुख पुरुषार्थरूप शुद्ध परिणाम से जीव के श्रद्धा तथा चारित्र सम्बन्धी भावमल दब जाने रूप उपशामक भाव होता है, उसको औपशमिक भाव कहते हैं और उसी समय दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय कर्म का भी स्वयं फलदान-समर्थरूप से अनुभव होता है, उसको कर्म का उपशम कहते हैं।
(कर्म की मुख्यता से) दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्म फलदानसमर्थरूप से अनुभव होना, वह कर्म का उपशम है और ऐसे उपशम से युक्त जीव का भाव, वह औपशमिक भाव है। २. क्षायिक भाव
आत्मा के स्वसन्मुख पुरुषार्थ से किसी गुण की अवस्था में अशुद्धता का सर्वथा क्षय होना अर्थात् पूर्ण शुद्ध अवस्था का प्रगट होना, सो क्षायिक भाव है। उस ही समय स्वयं कर्मावरण का सर्वथा नाश होना सो कर्म का क्षय है। ३. क्षायोपशमिक भाव
(आत्मा की मुख्यता से) धर्मी जीव को स्वसन्मुख पुरुषार्थ से श्रद्धा और चारित्र की आंशिक शुद्ध अवस्था होती है, उसको जीव के श्रद्धा और चारित्र की अपेक्षा से क्षायोपशमिक भाव कहने में आता है और उसी समय दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय कर्मों का स्वयं फलदानसमर्थरूप से उद्भव और अनुभव होता है, उसको उस कर्म का क्षयोपशम कहते हैं।
(कर्म की मुख्यता से) दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मों का फलदानसमर्थरूप से उद्भव तथा अनुभव होता है, उसको उस कर्म का क्षयोपशम कहते हैं और उससे युक्त जीव की श्रद्धा और चारित्र सम्बन्धी अवस्था होती है, उसको जीव की श्रद्धा और चारित्र सम्बन्धी अवस्था होती है, उसको जीव के श्रद्धा और चारित्र का क्षायोपशमिक भाव कहने में आता है।' १. पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा : ५६
आत्मा के ज्ञान, दर्शन और वीर्य आदि के आंशिक विकास तथा आंशिक अविकास को ज्ञान, दर्शन, वीर्य आदि का क्षायोशमिक भाव समझ लेना चाहिए। ये सभी छद्मस्थ जीवों के होते हैं। ४. औदयिक भाव ____ कर्मों के उदयकाल में आत्मा में विभावरूप परिणमन का होना औदयिक भाव है। ५. पारिणामिक भाव
सहज स्वभाव, उत्पाद-व्यय निरपेक्ष, ध्रुव, एकरूप रहनेवाला भाव पारिणामिक भाव है।
इन भावों के क्रमश: दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन भेद होते हैं।' औपशमिक भाव के औपशमिकसम्यक्त्व व औपशमिक चारित्र ये दो भेद हैं।
क्षायिक भाव के केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र - इसप्रकार ९ भेद हैं।'
मिश्र (क्षायोपशमिक) भाव के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान ये चार ज्ञान; कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ये तीन अज्ञान; चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन ये तीन दर्शन; क्षायोपशमिक दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य ये पाँच लब्धियाँ; क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक चारित्र और संयमासंयम - इसप्रकार कुल १८ भेद होते हैं।
औदयिक भाव के २१ भेद हैं - नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव ये चार गति क्रोध, मान, माया, लोभ - ये चार कषाय; स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद ये तीन वेद; कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल ये छह लेश्याएँ; मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम तथा असिद्धत्व भाव। १. द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् : तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय : २, सूत्र : २ २. सम्यक्त्वचारित्रे : तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय : २, सूत्र : ३ ३. ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च : तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय : २, सूत्र : ४ ४. ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपश्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च : तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय:२, सूत्र: ५ ५. गतिकषायलिमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्त्येकैकैकैषट् भेदाः : तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय : २, सूत्र : ६
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